क्या भारत भविष्य के लिए तैयार है? इस प्रश्न का उत्तर हाँ और नहीं दोनों है। कम से कम, हाल ही में शुरू किए गए भविष्योन्मुख कौशल के अंतर्राष्ट्रीय सूचकांक, क्यूएस वर्ल्ड फ्यूचर स्किल्स इंडेक्स के अनुसार तो यही कहा जा सकता है।
कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई), डिजिटल प्रौद्योगिकी और हरित उद्योगों जैसे भविष्य के क्षेत्रों के लिए तैयारी के मामले में भारत सूचकांक की एक श्रेणी में अमेरिका के बाद विश्व स्तर पर दूसरे स्थान पर है।
यह सूचकांक विभिन्न देशों का मूल्यांकन चार मानदंडों के आधार पर करता है। पहला, शिक्षा प्रणाली और उद्योग की जरूरतों के बीच संरेखण; दूसरा, क्या शिक्षा प्रणाली में छात्रों को भविष्य में आवश्यक कौशल प्रदान करने की क्षमता है; तीसरा, क्या नौकरी बाजार में उन कौशलों को भर्ती करने की क्षमता है जिनकी मांग है या जिन्हें विकसित किया जा रहा है; सबसे बढ़कर, कौशल-आधारित आर्थिक विकास के लिए देश कितना तैयार है?
यह रैंकिंग 190 से अधिक देशों, 280 मिलियन नौकरी विज्ञापनों, 5,000 विश्वविद्यालयों, 5 मिलियन नियोक्ता कौशल आवश्यकताओं और 17.5 मिलियन शोध पत्रों का विश्लेषण करके तैयार की गई है। दूसरी तरफ इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि बदलती तकनीक की वजह से रोजगार के अवसर भी बदलते जा रहा है।
पहले की ढेर सारी नौकरियां अब वजूद में नहीं है। उदाहरण के लिए हम समाचार पत्र उद्योग को ही ले सकते हैं, जहां के प्रूफ रीडर, पेस्टर जैसी नौकरियां अब कंप्यूटर की वजह से खत्म हो गयी हैं। इसके साथ ही डार्क रूम का काम भी बंद हो चुका है। प्लेट को रिसाइकिल करने की काम अब नहीं होता है। इसी तरह बैंकों और अन्य सरकारी प्रतिष्ठानों में भी परंपरागत ढेर सारे काम बंद हो चुके हैं।
पहले डाक लाने और ले जाने का चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी नहीं हैं क्योंकि यह काम अब ईमेल से होता है। यद्यपि एक मामले में भारत विश्व में दूसरे स्थान पर है, परन्तु अन्य तीन मामलों में भारत पीछे है। विशेष रूप से, शिक्षा प्रणाली और उद्योग की आवश्यकताओं के बीच संतुलन के मामले में यह शीर्ष तीस देशों में सबसे निचले स्थान पर है।
संकेत स्पष्ट है – देश के कार्यबल में लगातार बदलते रोजगार बाजार की मांगों को पूरा करने के लिए अभी भी एक बड़ा अंतर है। राष्ट्रीय कौशल विकास निगम के एक अध्ययन के अनुसार, 2022 में बाजार में लगभग 103 मिलियन कुशल श्रमिकों की मांग होगी।
यह घाटा देश की उच्च शिक्षा प्रणाली की ओर इशारा करता है, जो बाजार के विकास के साथ तालमेल रखने में असमर्थ है।
इसका एक उदाहरण अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद के आंकड़े हैं, जिनसे पता चलता है कि पिछले साल देश के अधिकांश इंजीनियरिंग कॉलेजों में स्नातकोत्तर स्तर पर दो-तिहाई सीटें खाली थीं।
हालाँकि, इस समस्या का एक कारण अनुसंधान और विकास में निवेश की कमी है। जबकि विश्व भर में इस क्षेत्र पर औसत व्यय सकल घरेलू उत्पाद का 1.93 प्रतिशत है, भारत में यह 0.6 प्रतिशत है।
इन कमियों को दूर करने के लिए तत्काल कदम उठाने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, कॉलेज और विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम और शैक्षिक क्षेत्र की आवश्यकताओं के बीच समानता होनी चाहिए।
इसे व्यावसायिक प्रशिक्षण, प्रशिक्षुता तथा शैक्षिक संस्थानों और उद्योग के बीच सहयोग के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। इतना ही नहीं, स्कूल स्तर की शिक्षा में भी बदलाव की जरूरत है।
सैद्धांतिक शिक्षा के बजाय व्यावहारिक शिक्षा पर जोर दिया जाना चाहिए। इसके अलावा, देश की आर्थिक स्थिरता और सतत विकास को जारी रखने के लिए उभरती प्रौद्योगिकियों और कार्यबल विकास पर ध्यान केंद्रित करना महत्वपूर्ण है।
सरकार को अनुसंधान एवं विकास में निवेश बढ़ाने के लिए अधिक सक्रिय होना चाहिए। अन्य देशों की तरह, भारत का प्रमुख लाभ इसकी युवा आबादी है, जिसे यदि सही अवसर दिए जाएं, तो इससे वैश्विक बाजार में विभिन्न क्षेत्रों में भारत का प्रभुत्व बनाने में मदद मिलेगी।
इस मामले में अवसरों का अच्छा उपयोग करना यथार्थवाद का प्रतीक होगा। वरना सबसे अधिक जनसंख्या का ढोल बजाने के बाद भी रोजगार के मामले में हमें अपेक्षित सफलता नहीं मिलेगी क्योंकि काम के स्तर और तौर तरीका बदल रहा है और उसके अनुरुप हम अगली पीढ़ी को तैयार कर पा रहे हैं अथवा नहीं, यह विचार का विषय है।
साथ ही यह हमेशा ही ध्यान रखना होगा कि बड़े कल कारखाने में ऑटोमेशन होने की वजह से वहां अधिक नौकरियां अब पैदा नहीं होंगी। दूर दराज के गांवों तक रोजगार को पहुंचाने के लिए देश की एक नीतिगत तौर पर कुटीर और लघु शिल्प को आगे ले जाना होगा। इसी रास्ते से चीन ने इतनी तरक्की कर ली है।