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प्रेमचंद की कहानी “मंत्र” से आगे……

राज लक्ष्मी सहाय

बूढ़ा भगत लपकता, अपनी लाठी खट खट करता घोर अंधरिया राह पर चला जा रहा था। उसकी पत्नी झोपड़ी में सो रही थी। भगत चाहता था कि बुढ़िया के जागने से पहले वापस झोपड़ी में आ जाए।

भगत डाo चड्ढा के निवास पर जा रहा था। वही डाक्टर कुछ सालों पहले उसके बीमार बेटे को देखने से मना कर दिया था। इसलिए कि उस समय वह गोल्फ खेलने जा रहे थे। अगले दिन आने को कहा। मोटर पर बैठे और चल दिए। भगत का बेटा चल बसा।

उसी भगत को बुलावा आया था। डाo के बेटे को जहरीले सांप ने काटा था। भगत सांप का जहर उतार सकता था। एक मन आया क्यों जाए? मगर मस्तिष्क पर हृदय हावी हो गया। अंधेरी रात में निकल पड़ा था। बुढ़िया ने उलाहना दिया—

“तुमसे न रुका जा रहा। जानती हूँ डाक्टर के बेटे का जहर उतारने के लिए व्याकुल हो”

“मैं क्यों जाने लगा भला”

“बेटे का दुख भूल गए क्या?”

“कैसी बात करती है। मैं तो चादर ओढ़कर सो रहा। तू भी सो जा”

मगर भगत न सोया और थोड़ी देर पश्चात निकल ही पड़ा। भगत के मंत्र आज तक पराजित न हुए थे। इस बार भी मंत्रों ने जहर को हरा दिया।

डाo चड्ढा भगत की तलाश में इधर उधर भागते नजर आए। मगर कहीं न मिला भगत। डाo साहब उसे अच्छा सा इनाम देना चाहते थे। आखिर उसके बेटे की जान बचाई थी उसे गरीब बूढ़े भगत ने। हारकर डाo चड्ढा कुर्सी पर बैठ गए। आंखों के समक्ष वह दृश्य कौंध गया—

वह गोल्फ खेलने निकल रहे थे। तभी एक गरीब बूढ़ा अपने बेटे को खटिया पर लेकर आया था। बूढ़ा खड़ा था डाo साहब के दरवाजे पर। अपनी पगड़ी रख दी थी डाo चड्ढा के चरणों पर।

—-“हुजूर एक ही सहारा है मुझ बूढ़े के जीवन का। एक नजर देख लेते। बड़ा नाम सुना है आपका माई बाप”

भगत के गिड़गिड़ाने का कोई असर नहीं हुआ। मुंह में सिगार दबाए अपनी मोटर में बैठ निकल गए। यह उनके मनोरंजन का समय था। दिनचर्या के पालन में पक्के थे। बूढ़े को कहा—

“कल आना”

भगत का ‘कल’ कभी न आया। भारी मन से खटिया उठाकर चल दिया। उस रात उसका युवा पुत्र सिधार गया। बुढ़ापे की लाठी चूर चूर हो गई। उसकी बुढ़िया का क्रंदन आसमान चीरता था। कोई दिन ऐसा न होता जब उसने डाo चड्ढा को न कोसा हो।

भगत के मंत्रों ने सर्पदंश से मृत्यु की ओर जाते अनेकों लोगों को वापस खींच लाया था। उसके मंत्रों की शक्ति से गांव ही नहीं आसपास के सभी गांववाले परिचित थे।

समय का पन्ना लिखा जा रहा था। उसी डाo चड्ढा के बेटे को सांप ने काटा। कोई दवा, नश्तर काम न कर सका। विज्ञान की दुहाई देने वाले डाo साहब झाड़ फूंक की कल्पना भी न कर सकते थे। मगर पुत्र वियोग के भय में हथियार डाल दिया।

किसी ने कहा—

“एक बार भगत को भी आजमाकर देख लें”

“जो करना है करो। बच्चे को किसी विधि बचा लो”

डाo चड्ढा दहाड़े मारकर रो रहे थे।

तब वही बूढ़ा भगत तूफानी अंधियारी बरसाती रात में आकर बच्चे की मुंदती आंखों को खोल देता है। डाo चड्ढा अपना सब कुछ भगत के चरणों पर रख देना चाहते हैं। मगर अपना काम करते ही ईनाम को लात मारकर गायब हो गया। वैसे ही जैसे उसकी माथे की पगड़ी को डाक्टर ने पांव से ठोकर मारा और मोटर पर सवार हो चल दिए।

इसी मोड़ पर प्रेमचंद जी की कलम अनेक प्रश्नों की बौछार करती रुक गई।

“क्या सभ्य समाज इतना निर्मम होता है?”

हाँ। निर्मम तो है यह समाज जिसे सभ्य कहा जाता है। बूढ़ा भगत सभ्य नहीं था इसलिए तो चला आया था उसी डाक्टर के बेटे की जान बचाने जिसने एक नजर तक उसके बीमार बेटे पर न डाली।

डाo चड्ढा के बेटे ने अपनी आंखें खोली। वह जमीन पर पानी से तर पूरा भीगा लेटा था। उसकी मां पंखा झल रही थी। उसकी प्रेमिका मृणालिनी अपने हृदय का संपूर्ण प्रेम उंडेलती पास ही बैठी थी। उसने पूछा—

“अब कैसे हो?”

“लगता है किसी ऊँचे पर्वत से गिरकर जीवित हूँ। बदन टूट रहा है”

माता के मुख से शब्द नहीं फूट रहे थे। बार बार भगवान का धन्यवाद करती और भगत को दुहाई देती। भगवान ही भगत का रूप धरकर आए थे। अपने गले का हार मुट्ठी में लिए बैठी थी। वह इसे उस बूढ़े भगत के चरणों पर रखना चाहती थी। उधर डाo साहब अपनी आधी संपत्ति भगत के नाम लिख देने को तत्पर थे। उस संपत्ति का क्या काम था भगत को। उसे भोगने वाला उसका इकलौता बेटा अब संसार में न था। उसके लिए तो उसकी झोपड़ी भी भार जैसी थी। उसे शक्ति ही न थी कि टूटी छप्पर भी मरम्मत कर सके। एक ही अनमोल दौलत थी उसके पास। उसका हुनर। उसके मंत्रों से भयानक विष वैसे ही उतर जाता जैसे अग्नि लपट पर वर्षा की बौछार पड़ जाए।

थोड़ी देर डाo चड्ढा का बेटा कैलाश लेटा रहा। फिर माँ का सहारा ले उठकर बैठा। उसने पूछा—

“मेरा इलाज किसने किया? क्या पिताजी ने दवा दी?”

अपनी उंगली पर नजर डाला। उसी में सांप ने काटा था। कहीं नश्तर का निशान न दिखा। फिर सर्प का विष निकला कैसे? कैलाश की आंखों में अनेकों सवाल एक संग तैर रहे थे।

मां ने कहा—

—“आया था कोई बूढ़ा भगत। उसी के मंत्रों ने तुम्हें नया जीवन दिया।”

—“मंत्रों ने?”

—“हां हां भगत के मंत्रों ने”

कालेज में पढ़ने वाला युवक सोच में पड़ गया।

विज्ञान और मंत्र—क्या सही क्या गलत। मगर सत्य यही था कि भगत के मंत्रों ने भयंकर जहरीले सर्प के विष को नाकाम कर दिया। उसने ठान लिया। उसे भगत से मिलना है। उसे अपने प्राणरक्षक का दर्शन करना ही होगा।

भगत को बुलाने डाo चड्ढा का माली गया था। पता लगते ही कैलाश माली के संग अगली सुबह निकल पड़ा।

भगत की झोपड़ी तक मोटर नहीं जा सकती थी। एक मील पहले ही मोटर से उतरना पड़ा। अपने माली के पीछे पीछे वह चला जा रहा था। सड़क पगडंडी में तब्दील हो गई। फिर पगडंडी भी गायब। छोटी छोटी झाड़ियों के बीच से रास्ता बनाते वे झोपड़ी के सामने खड़े थे।

कैलाश की महंगी कमीज पसीने से तर हो गई। फूलपैंट की क्रीच बिगड़ गई थी। कुछ कंटीले घास भी चुभे थे। पालिश किया जूता धूल से लिपट चुका था। वह सोच रहा था अंधेरी रात में भगत किन मुश्किलों को पार कर उसके घर गया होगा। कैलाश ने झोपड़ी के कपाट पर थाप दी। आवाज आई—

“कौन हो भाई?”

तब तक अरहर की सूखी डंडियों को बांधकर बनाया कपाट जमीन पर गिर पड़ा। घबरा गया कैलाश। गिरते गिरते बचा।

“अरे बाबू आप? डाo साहब ठीक तो हैं?”

इस प्रश्न का जवाब दिए बिना कैलाश ने एक नजर डाली झोपड़ी के भीतर।

एक टूटी खटिया थी। तीन पाये थे। चौथा पाया चार ईंटों को एक पर एक रखकर बनाया गया था। मिट्टी की दीवार दरकी दरकी। एक खूंटी पर भगत का कुर्ता था। बाहर जाने पर ही पहनता था। ऐसे तो धोती के ही एक कोर को कंधे पर ओढ़ लेता। उसकी जीवन संगिनी खटिये पर झूल रही थी। कोने में बुझा चूल्हा। माटी की हंडी उस पर रखी थी— कालिख पुती। धुंवे से धूमिल दो चार टीन के डिब्बे थे मानो कबाड़ से चुनकर लाए गए हों। उनमें अनाज था या नहीं कौन जाने।

“ओह!” यही शब्द निकला नवयुवक के मुख से

ऐसी गरीबी उसकी कल्पना से परे की चीज थी।

बूढ़ी ने पूछा—

“कौन है जी?”

“डाo चड्ढा का बेटा”— भगत ने जवाब दिया।

उठकर बैठ गई बूढ़ी। अरे यह जिंदा है? उसकी आंखों से आग बरसने लगा। भगत की ओर मुखातिब हुई—

“तो तुम चले ही गए न जान बचाने डाक्टर के बेटे की।” भगत चुप। “कैसे बाप हो जी? अपना बेटा भुला दिया?”

फिर कहा—

“आदत से लाचार हो—किसी को सांप काट ले तो बिजली रेंगने लगता है तुम्हारे पैर में। दौड़ जाते हो अस्सी के उमर में भी।”

भगत बोला—

“चुप रहो। चुप रहो भागवान। अभी अतिथि खड़ा है”

कैलाश से कहा भगत ने—

“बोलो बाबू। नया जनम लेकर आए हो। खूब जीयो। घर में कुछ है नहीं कि मँह मीठा कराऊँ। मगर काहे को आए बबुआ यहां?”

ध्यान से देखा कैलाश ने भगत को—-

हिमालय की कन्दरा में भूखे प्यासे रहकर तप किये तपस्वी की भांति लगता था बूढ़ा भगत। दधीचि जैसा ही। रूखी चमड़ी से अस्थियां झांक रही थीं। बिना सिंचन के पेड़ की सूखी शाखाओं जैसी। कैलाश को वह धरती का प्राणी नहीं लगता था। उबड़ खाबड़ चेहरे में एक वस्तु थी जो अनायास खींचती थी। उसकी चमकती आंखें। मानों किसी नाग के माथे पर दो मणियाँ जड़ी हों। जिसकी ज्वाला से विष भी परास्त हो जाए।

कैलाश बोला—

“आपने ही मेरी जान बचाई न। पिताजी ढूंढ रहे थे। आपको ईनाम देना चाहते थे। मगर आप तो गायब ही हो गए।”

भगत ने ठहाका लगाया।

—“ईनाम? प्राण बचाने का ईनाम?

तुम शहरी लोग कीमत लगाना खूब जानते हो। है कोई ईनाम तुम्हारे पास जिससे मेरा बेटा मुझे वापस मिल जाए? अगर है तो दो न ईनाम। खुशी खुशी लूंगा। मगर संसार की सारी दौलत लुटाकर भी क्या तुम्हारे पिता तुम्हारी जान बचा सकते थे? जरा पूछना उनसे”

कोई जवाब न था कैलाश के पास।

भगत ने कहा—

“तुम्हारी ही उमर का होता मेरा बेटा। बीमार था। एक आसरा था। अगर डाo चड्ढा एक नजर डाल देते तो शायद बच जाता। बड़ा नाम जो था उनका। इसलिए चला गया उनके दरवाजे पर”

क्या जवाब देता कैलाश। उसे वह बूढ़ा भगत आसमान की ऊँचाई में स्वर्ण सिंहासन पर बैठा नजर आ रहा था। और—उसके पिता पाताल में धंसते दिख रहे थे।

कैलाश ने कहा—

“बाबा एक बात कहें?”

“कहो बबुआ कहो”

“जैसे आपने मेरे शरीर का जहर निकाला वैसे ही मेरी देह से आत्मा निकालकर अपने बेटे में डाल सकते हैं? क्या ऐसा कोई मंत्र जानते हैं बाबा।”

कैलाश रोने लगा। भगत के पैरों के पास बैठ गया।

भगत ने कैलाश का हाथ पकड़ लिया। कहा—

“तुम्हारे पिता और मैं। दोनों का एक काम—जान बचाना। एक मकसद—भला करना—कल्याण करना”……

“स्वार्थी होता तो तुम्हें बचाने तुम्हारे घर जाता ही नहीं। आधी रात— अंधड़ तूफान—अंधेरे में क्यों निकलता झोपड़ी से?”…..

—“बड़े भोले हो बाबू। जाओ घर। खुश रहो।”

लौट गया कैलाश।

भगत की झोपड़ी में बुढ़िया का क्रंदन फिर गूंजने लगा। कैलाश को देख अपना बेटा याद आ गया था।

कैलाश की मां खाना लिए इंतजार कर रही थी। देखा तो लपककर हृदय से लगा लिया।

“किधर चले गए थे। देह कमजोर है अभी तुम्हारी। कुछ दिन आराम कर लो”

कोई जवाब न दिया कैलाश ने। भूख नहीं कहता अपने कमरे की ओर बढ़ गया।

कैलाश को शौक था सांप पालने का। अनेकों सांप किस्म किस्म के पाल रखे थे उसने। वे उसके इशारे समझते थे। अपने इसी शौक का प्रदर्शन बड़े गर्व से कर रहा था कैलाश। बातों बातों में सबसे विषैले सर्प की गर्दन को पकड़ लिया। तभी उसे सांप ने काट लिया। पल भर में अचेत कैलाश भूमि पर गिर पड़ा। घर में हाहाकार मच गया। डाक्टरी इलाज व्यर्थ सिद्ध हुआ। तभी देवदूत बनकर भगत आया और कैलाश के प्राण बचे।

डाo चड्ढा को तभी लगा जैसे पहले कभी देखा हो भगत को। स्मरण हो आया। भगत अपने बीमार बेटे को लेकर दरवाजे पर आया था। मगर उसे लौटा दिया कहकर—

“अभी मेरे गोल्फ खेलने का समय है। कल आना”

भगत उस समाज का प्रतिनिधि था जो दूसरों की टूटी छप्पर पर अपने बिस्तर की चादर बिछा दे। अपनी थाली की रोटी किसी भूखे को देकर स्वयं पानी पी ले। किसी की बुझती लालटेन में अपने घर की ढिबरी का तेल भर दे।

डाo चड्ढा उस सभ्य समाज का प्रतिनिधित्व करते थे जहाँ दूसरे की रोटी लूट ली जाती है। मेरे तेरे की तराजू पर संवेदना तौली जाती है। गरीब की झोपड़ी को रौंदकर अट्टालिका खड़ी की जाती है।

कैलाश को अपना सभ्य समाज भगत के सामने बड़ा ओझा और बौना लगा। उसे खुद से घृणा हुई। सभ्य समाज की दीवार भालू की भीत थी जो भगत के अस्थिपंजर सरीखे देह के एक झटके से चरमराकर ढह गई थी। कैलाश को प्रतीत होता था जैसे किसी भूकंप में उसका घर द्वार भूमिगत हो गया। वह बेघर था। खंडहर में अकेला खड़ा।

विचार मंथन में लीन था कैलाश। अपने खंडहर बने जीवन पर नयी ईमारत कैसे बनाए? वह भगत की झोपड़ी पाने को ललायित था। उस झोपड़ी की चमक का अनुभव सिर्फ कैलाश को था।

कैलाश की मां खीर लेकर आई। बड़े प्रेम से माथा सहलाते हुए कहा—

“केवल खीर ही खा लो बेटा। रात में भूखे पेट नहीं सोते”

कैलाश को भगत का आधा टूटा चूल्हा स्मरण हो आया। कहा—-

“रख दो माँ। खा लूंगा। तुम सो जाओ।”

ग्यारह बज रहे थे रात के। खीर का कटोरा लेकर निकला। आहिस्ते आहिस्ते गैराज में गया। मोटर स्टार्ट किया। बगल की सीट पर कटोरा रखा। भगत की बस्ती की ओर निकल पड़ा। आधी मील पहले ही उतर कर पैदल चल पड़ा।

रात अंधेरी भयावह थी। कई बार रास्ते के पत्थरों झाड़ियों से टकराया। बिना रूके बढ़ता गया। सीधे भगत की झोपड़ी के पास ही रूका।

इस बार दरवाजे पर हाथों की थाप नहीं देकर आवाज दिया।

—“सो गए भगत जी”

—“कौन है भाई। किसको काट लिया सांप?”

—“खोलिये भगत बाबा। हम हैं।”

आवाज पहचान गया भगत।

“अरे यह तो चड्ढा का बेटा है। हे प्रभु अब किसका जहर उतारना है उसके घर।”

भगत ने डंठलों वाला कपाट खिसका कर हटा दिया। चौंक गया था भगत। कहा—

—“किसका जहर उतारना है बाबू”

कैलाश ने खीर की कटोरी भगत के सामने रख दी—

“आप दोनों थोड़ा थोड़ा खा लें मुझे अच्छा लगेगा। खा लो भगत बाबा”

भगत ने बुढ़िया को हिलाकर उठाया।

“अरी उठ जल्दी। तुम्हारे लिए खीर भेजा है भगवान ने।”

सचमुच बुढ़िया पेट दबाकर सोयी थी। रात में कुछ खाया न था। लगभग झपटकर खीर का कटोरा लिया और खुद ही सारी खीर खा गई। देखता रह गया भगत। कैलाश भी देखता रह गया। भगत भूखा था। मगर पत्नी को खाते देख खुश हो गया।

कैलाश पछता रहा था। क्यों लाया इतनी कम खीर। खैर उसे भी महसूस हुआ कि बुढ़िया को खीर खिलाकर भगत का ही पेट भरा।

भगत ने पूछा कैलाश से—

—“आज मुझ गरीब की झोपड़ी पर आए क्यों बाबू?”

—“मुझे वह हुनर सीखना है जिससे आप सांपों का जहर उतारते हैं। कैसे करते हैं?”

—“हम कुछ नहीं करते। ताकत तो मंत्र का है। मंत्र के आगे जहर नहीं टिकता”

—“हमें भी मंत्र सिखा दीजिए”

भगत हंसने लगा।

—“जिद काहे करते हो बाबू। यह आसान नहीं। यह तो पीढ़ी दर पीढ़ी का काम है। हमारे पूर्वजों का दान है यह मंत्र विद्या।”

—“आपका बेटा तो न रहा। मुझे ही अपने हुनर का वारिस बना लीजिए न”

—“अरे बबुआ का कहते हो। तुम यह काम करोगे तुम? इसमें एक धेला भी कमाई नहीं। पुण्य का काम है। कीमत लोगे तो विद्या खत्म।”

—“हमको पैसा नहीं चाहिए। मेरे पापा बहुत पैसा कमा लिए हैं बाबा।”

उसी समय बगल के गांव का सरपंच हाँफता हुआ—हिचकता—रोता हुआ भगत के पैरों पर गिर गया।”

“बिटिया का प्राण संकट में है भगत। फूल तोड़ने गई थी। काले करैत ने डंस लिया।”

और भगत लाठी डग डग करता बिना कुर्ता पहने ही दौड़ गया। पीछे पीछे कैलाश चल पड़ा। कहाँ से भगत के पैरों में इतनी ताकत आ गई थी। कमल उसके पीछे पीछे ही रह गया।

वह कौन सी चेतना थी जिसका तूफान उठते ही भगत उस तूफान पर सवार हो जाता था। फिर कुछ ही समय में उस मरीज तक पहुंच जाता था जिसे सर्प ने डंसा हो। मानों स्थिर गंगा की लहरें बाढ़ में परिणत हो जाएँ।

कैलाश अचंभित था भगत के तरीकों को देखकर।

सरपंच के आंगन में नीली देह वाली बच्ची लेटी थी। उसपर लगातार पानी उंडेलकर मंत्र पढ़े जा रहे थे। नीला रंग हल्का होते होते गौरवर्ण हो गया और अचेत बच्ची की आंखें खुल गईं।

कैसा करिश्मा था। क्या जादू था। कैलाश अवाक—आश्चर्यचकित—विस्मित। लोगों के प्राण बचाते बचाते भगत शिवत्व का पर्याय लगता था। साक्षात मृत्युंजय। बस एक ही जहर उतार न सका भगत। अपने जवान बेटे की मौत के दुख का विष अब तक न उतरा था। जैसे शिव ने कंठ में धारण कर रखा हो कालकूट गरल। वैसे ही सभ्य कहलाने वाले आधुनिक समाज से नफरत का कलकूट अपने कलेजे में समा रखा था भगत ने।

फिर आए दिन ऐसी ही घटनाओं का साक्षी बना कैलाश। हर बार उसकी भक्ति दृढ़ होती जाती। भगत का शिष्य बनने की इच्छा हठ में बदलने लगी।

कैलाश ने एक दिन कहा—

—“बाबा मुझे शिष्य बना लो अन्यथा अनशन कर प्राण त्याग दूंगा।”

इस बात को भगत ने मजाक समझा। मगर सचमुच कैलाश ने अन्न जल त्याग दिया। सात दिन बीत गए। कैलाश लड़खड़ाकर गिर पड़ा भगत के कदमों पर। डर गया भगत।

आधी रात के बाद से गुरु शिष्य का कार्यक्रम आरंभ होता था। सूर्योदय से ठीक पहले कैलाश अपने घर में होता। माता पिता को भनक भी न लगी। वे सोचते बेटा डाक्टरी की पढ़ाई करता है। इसलिए कमरे की बत्ती रात भर जलती है। वे कल्पना में भी न सोच सकते थे कि उनका इकलौता बेटा कौन सी विद्या सीख रहा। दोनों विद्याएँ जान बचाने का ही करतब थीं।

किसी बात को बहुत दिनों तक छिपाया नहीं जा सकता। डाo चड्ढा को खबर हो गई की कैलाश हर रोज भगत के पास जाता है। भगत को खबर भिजवाया। कैलाश से मिलने मना किया। डर गया भगत। मगर कैलाश की विद्या अधूरी थी। अब न वह पीछे हटने को तैयार न कैलाश रुकने को तैयार।

डाo चड्ढा ने भगत को बुला भेजा। सुबह सुबह कैलाश कमरे से बाहर निकला। पिता किसी को फटकार लगा रहे थे। उसने सुना—

—“मेरे बेटे की जान बचाने की कितनी कीमत चाहिए? उसका दोगुना लो और दफा हो जाओ”

—“हुजूर हम जान बचाने का सौदा नहीं करते। यह मेरा धरम है”

—“कैलाश को फुसलाकर जायदाद हड़पना चाहते हो?”

—“जायदाद का क्या करूंगा डाo साहब। वह कैलाश बाबू ने जिद पकड़ लिया कि उन्हें विद्या सिखाऊँ।”

भगत सोचने लगा। सभ्य समाज इतना एहसान फरोश होता है? भूल गया यह चड्ढा। अपने बेटे की जान बचाने के लिए सबके पैर पकड़ रहा था। भूल गया कि जिस भगत के बेटे को एक नजर देखा तक नहीं उसी ने इसके बेटे की जान बचाई। ओह कैसा जमाना है। उसकी बुढ़िया ठीक कहती थी। चड्ढा के बेटे के लिए क्या जरूरत थी भादो की अंधेरी बरसाती रात में घर से निकलने की। पता तो चलता डाक्टर को कि बेटे के जाने का दुख क्या होता है।

मगर भगत सभ्य समाज का हिस्सा नहीं था।

भगत हाथ जोड़कर क्षमायाचना कर रहा था। कैलाश ने उसके पांव छूकर कहा—

—“क्या बात है गुरु बाबा। इतनी सुबह मेरे घर?”

कोई जवाब न दिया भगत ने। कड़ककर बोले डाo चड्ढा।

—“यह पाखंडी है। बड़ा भोला बनता है। यह बुड्ढा मुझे और तुम्हें दोनों को धोखा दे रहा।”

भगत चुप

—“तुमपर जादू टोना कर मुझसे बदला लेना चाहता है। खबरदार जो इसके घर गए।”

कैलाश ने पास रखी कुर्सी पर भगत को बैठाया। अपने पिता से कहा—-“आपके सामने आज मैं जीवित हूं इन्हीं की वजह से। आपका अहंकार अब तक नहीं मिटा पिताजी। आपका ईनाम ठुकराकर ये चले गए थे। भूल गए आप? मैंने डाक्टरी की पढ़ाई छोड़ दी है। मंत्रविद्या सीख रहा हूं इनसे”

डाo चड्ढा सर पीटने लगे। भगत ने काला जादू कर दिया बेटे पर। उन्होंने दरबान को बुलाया—चीखकर कहा—

“इस भगत की ऐसी धुलाई करो कि खड़ा न हो सके।”

दरबान ने डंडा उठाया। हर वार को कैलाश अपने ऊपर ले लेता। कैलाश की माता दौड़ी आई। लाठी छीनकर फेंक दिया। भगत पर नजर पड़ी।

“अरे यह तो वही भगत हैं जिन्होंने मेरे बेटे की जान बचाई”

वह बार बार भगत के चरण छूने लगी।

भगत उठकर चल दिया। कैलाश उसके पीछे पीछे। मां ने रोका नहीं। अभी विद्या अधूरी थी।

डाo चड्ढा के घर के बाहर दो साइनबोर्ड थे—

पहला—

“डाo चड्ढा

एम बी बी एस

एम डी (यूएसए)”

दूसरा—

 “कैलाश चड्ढा

सांप काटने का शर्तिया इलाज मंत्र से”

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