सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला मीडिया को गिरफ्तारी और अभियोजन के रूप में प्रतिशोध का सामना किए बिना सरकार की आलोचना करने के अधिकार की पुष्टि करता है, जो न केवल स्वतंत्र प्रेस के लिए बल्कि भारतीय लोकतंत्र के लिए भी एक स्वागत योग्य विकास है।
देश की शीर्ष अदालत को यह स्पष्ट करने की आवश्यकता थी कि किसी भी लोकतंत्र में क्या स्पष्ट तथ्य होना चाहिए, यह भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की स्थिति को दर्शाता है।
हाल के वर्षों में, प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की रैंकिंग में भारी गिरावट आई है। कई पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया है, अक्सर ऐसे विषयों पर रिपोर्टिंग करते समय जो केंद्र या राज्यों की सरकारों के लिए शर्मनाक हैं। कई पत्रकारों पर कठोर आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत आरोप लगाए गए हैं, या उन्हें जेल भी भेजा गया है।
भारतीय अधिकारियों ने न्यूज़रूम पर छापे मारे हैं और लक्षित – स्वतंत्र? – मीडिया समूहों पर वित्तीय धोखाधड़ी का आरोप लगाया है। भारत में हिंदू बहुसंख्यक हिंसा के बढ़ने पर बीबीसी और अल जज़ीरा जैसे अंतरराष्ट्रीय मीडिया संगठनों द्वारा बनाई गई डॉक्यूमेंट्री पर प्रतिबंध लगा दिया गया है।
इसका नतीजा दरअसल खुद मीडिया की अपनी देन है। आपातकाल के दौरान स्वर्गीय इंदिरा गांधी के बारे में एक प्रसिद्ध बांग्ला अखबार के सम्पादक ने कड़ी टिप्पणी की थी। उनका कहना था कि इंदिरा जी ने मीडिया को थोड़ा झूककर चलने की नसीहत दी थी तो पूरी की पूरी मीडिया जमीन पर साष्टांग दंडवत करने लगी।
वर्तमान हालत उससे भी बदतर है जबकि देश के मूल मुद्दों से हटकर मीडिया का एक बहुत बड़ा वर्ग सिर्फ वही परोस रहा है, जो केंद्र सरकार के लिए सुविधाजनक हो। जब ऐसे मुद्दे नहीं होते हैं तो वह जलेबी और धर्म के बहस के जरिए देश का ध्यान भटकाने के काम में जुट जाता है। इसके ठीक उलट सोशल मीडिया फर्मों को सरकारों से सामग्री हटाने की मांग करने वाली मांगों की संख्या में भी शीर्ष पर है।
दुनिया भर में भी पत्रकारिता एक ऐसा पेशा है जो लगातार खतरनाक होता जा रहा है। गनीमत है कि सरकार की फैक्ट चेकिंग वाले फैसले को अदालत ने गलत ठहरा दिया है। वरना इस आदेश का इस्तेमाल भी अंततः सरकार विरोधी स्वर को दबाने में होना तय था। अब वैश्विक परिदृश्य में देखें तो खासकर संघर्ष वाले इलाकों में पत्रकारों की हत्या के मामले बढ़ रहे हैं।
गाजा में युद्ध इसका एक उदाहरण है। ऐसे समय में जब पत्रकारिता को पारंपरिक रूप से आधार देने वाले आर्थिक मॉडल पहले से ही दबाव में हैं, बड़े पैमाने पर छंटनी और कई मीडिया संगठनों को बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है, सरकारों की धमकियाँ उस शत्रुतापूर्ण माहौल को और बढ़ा रही हैं जिसमें प्रेस आज काम कर रहा है।
इस तरह के माहौल का स्वतंत्र प्रेस पर एक डरावना प्रभाव पड़ता है। संगठन और व्यक्तिगत पत्रकार सरकारों के सामने झुकने के लिए दबाव में हैं।
सत्ता में बैठे लोगों से कठिन सवाल पूछना और उन्हें जवाबदेह ठहराना – जो मीडिया का मूल काम है – परिणामस्वरूप जोखिम प्रबंधन का एक अभ्यास बन जाता है।
प्रेस, जिसे लोकतंत्र का स्तंभ माना जाता है, को इसके बजाय सरकारों की जय-जयकार करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। भारत पहले ही इस फिसलन भरी ढलान पर काफी दूर तक फिसल चुका है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस संकट के निवारण की दिशा में पहला कदम होना चाहिए। दूसरी तरफ मीडिया घरानों को भी इस सच से अब मुंह नहीं मोड़ना चाहिए कि सरकारी फैसलों की वजह से अब बाजार में भी विज्ञापन का पैसा नहीं बचा है। यानी धीरे धीरे मीडिया भी पूरी तरह सरकार पर आश्रित होती चली जा रही है। तय बात है कि अगर आप किसी के आसरे होंगे तो वह मनमाने तरीके से आपको संचालित ही करेगा, यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में भी पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मीडिया से नाराजगी सिर्फ इस वजह से है क्योंकि अब मीडिया उनके मुकाबले कमला हैरिस को ज्यादा प्रचारित कर रहा है।
भारत में भी स्थिति लगभग ऐसी ही है। पूर्व निर्धारित फोटो सेशंस को स्वाभाविक कहकर चलाना और हर मौके को अपने निजी प्रचार में इस्तेमाल करने की चालें देख देखकर आम जनता भी सच को समझने लगी है।
लिहाजा यह अब मीडिया को तय करना है कि वह किस रास्ते जाएगी। सुप्रीम कोर्ट ने तो उसे सिर्फ यह कवच प्रदान किया है कि अगर वह चाहे तो किसी सरकारी फैसले की आलोचना बेझिझक कर सकती है। अब आलोचना करना अथवा चरण वंदना करना है, यह तो उन्हें ही तय करना है। अपने और अपने देश और समाज के लिए क्या भला है और क्या बुरा है, इसकी समझ हर किसी के पास होती है, सिर्फ विवेक का इस्तेमाल करना होता है।