भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अलग-अलग संदर्भों में की गई दो टिप्पणियों ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित प्रासंगिक मुद्दों को उठाया है।
ये मामले धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) के तहत की गई कार्रवाइयों से संबंधित हैं, और इन टिप्पणियों का महत्व इस बात में निहित है कि किस हद तक अदालतें एक दृढ़ निश्चयी सरकार के सामने व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए इच्छुक हैं, जो अपनी एजेंसियों को अपना काम करने देना चाहती है।
एक सवाल यह था कि क्या धन शोधन के आरोप में किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने वाले अधिकारी को कार्रवाई को वैध मानने के लिए गिरफ्तारी की आवश्यकता को प्रदर्शित करना चाहिए और दूसरे ने इस बात पर आश्चर्य और घृणा व्यक्त की कि अदालतें कितनी आसानी और तेजी से ज़मानत देने वाले तर्कसंगत आदेशों पर रोक लगा रही हैं।
न्यायमूर्ति संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली पीठ ने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा उनकी गिरफ्तारी की वैधता पर चर्चा के दौरान, मार्च में उनकी गिरफ्तारी के बाद से दूसरी बार दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को अंतरिम ज़मानत दी।
64-पृष्ठ के फैसले के अंत में एक बड़ी पीठ को यह सवाल भेजा गया कि क्या ईडी को किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने से पहले उसे गिरफ़्तार करने की आवश्यकता साबित करनी होगी।
पीएमएलए की धारा 19 के अनुसार, गिरफ्तार करने वाले अधिकारी को गिरफ्तारी करने से पहले यह विश्वास करने का कारण होना चाहिए कि व्यक्ति मनी लॉन्ड्रिंग का दोषी है।
पीएमएलए के अनुसार, अधिकारी को गिरफ्तारी के कारणों को दर्ज करना और आरोपी को गिरफ्तारी के आधार बताना दोनों ही वैधानिक दायित्व हैं। क्या इन दायित्वों में व्यक्ति को गिरफ्तार करने की आवश्यकता को प्रदर्शित करने का कर्तव्य शामिल है, यह तय करना होगा। यह स्थापित है कि किसी शक्ति का अस्तित्व उसका प्रयोग करने के लिए पर्याप्त औचित्य नहीं है।
न्यायालय के आदेश की उत्साहजनक विशेषता यह है कि यह इस दृष्टिकोण को निर्धारित करता है कि गिरफ्तारी पर अधिकृत अधिकारी का निर्णय वैधानिक आवश्यकताओं के अनुपालन में निहित होना चाहिए, और ऐसा होना चाहिए जिसकी मजिस्ट्रेट या न्यायाधीश जांच कर सकें।
न्यायालय ने यह दोहराकर भी अच्छा किया है कि पीएमएलए के तहत गिरफ्तारी केवल सनक पर नहीं हो सकती है; और जांच के दौरान निर्णय में दोषमुक्ति सामग्री पर भी विचार किया जाना चाहिए, न कि केवल आरोपी के खिलाफ सामग्री पर।
जमानत आदेशों पर रोक लगाने वाली अदालतों पर एक अन्य पीठ के आश्चर्य के बारे में दूसरा मुद्दा, समकालीन न्यायिक कार्यप्रणाली के एक महत्वपूर्ण पहलू को छूता है। अभियोजन पक्ष जिस जोश के साथ अपने मामले की पैरवी करता है, चाहे वह जमानत के खिलाफ हो या उसे देने वाले न्यायालय के आदेश को चुनौती देने का, उच्च न्यायालयों के दृष्टिकोण में एक प्रमुख कारक प्रतीत होता है।
जैसा कि खंडपीठ ने उल्लेख किया, तर्कपूर्ण आदेशों पर रोक लगाना निचली अदालत द्वारा विकृति जैसे आधारों पर आधारित दुर्लभ अपवाद होना चाहिए, न कि नियमित रूप से किया जाना चाहिए। इन घटनाक्रमों के बीच दो उदाहरण प्रासंगिक है। पहला उदाहरण हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी का है, जिसमें एक जमीन खरीदने में पीएमएलए कानून का इस्तेमाल करते हुए ईडी ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया।
केंद्रीय एजेंसियों के दबाव में निचली अदालतों ने इस बात पर गौर ही नहीं किया कि पहली कड़ी में ही यह आरोप गलत था। यह जमीन हेमंत सोरेन के नाम पर नहीं थी और इस दायरे में आने वाले तमाम भूखंड छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट के तहत है। जब जमीन ही हेमंत सोरेन की नहीं थी तो पैसे के लेनदेन और धन शोधन का आधार नहीं था। इसी बात को उच्च न्यायालय में अपने जमानत देने के फैसले मे कहा है। अब दूसरा मामला अरविंद केजरीवाल है। कथित शराब घोटाला में पैसे का कोई सबूत नहीं है। सिर्फ सरकारी गवाह बने लोगों के बयानों पर यह पूरा मामला खड़ा है। आरोप पैसे के अवैध लेनदेन का है, जो अब तक स्पष्ट नहीं हो पाया है। लिहाजा इस मामले में भी कहा जा सकता है कि ईडी और सीबीआई ने एक कागजी किला खड़ा करने की साजिश रची है।
जाहिर है कि ऐसे मामले राजनीतिक आकाओं के निर्देश पर ही दर्ज किये जाते हैं। अब तीसरा मामला तमिलनाडू के आईएएस अधिकारियो के खिलाफ ईडी द्वारा रेत खनन घोटाला का है। इसमें मद्रास उच्च न्यायालय ने जब्त तमाम संपत्तियो को छोड़ने का निर्देश जारी कर दिया है। इस मामले में हमें याद रखना होगा कि वहां जांच करने गये एक ईडी अधिकारी को घूस लेते हुए तमिलनाडू पुलिस ने रंगे हाथ गिरफ्तार किया था। जिस गिरफ्तारी के बाद ईडी परेशान हो गयी थी। अब झारखंड के कई अधिकारियों के खिलाफ ईडी की अलिखित जांच की भी बाजार में चर्चा है। क्या यहां भी कानून का दुरुपयोग हो रहा है, इस पर विचार करने की जरूरत है।