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फिर मूल मुद्दों से ध्यान भटकेगा

भाजपा सरकार की राजनीतिक चालों को शायद विपक्ष अब तक नहीं समझ पाया है। राहुल गांधी अपने यात्रा के जरिए जिन मुद्दों पर भाजपा को परेशान कर रहे हैं, उनसे उबरने का आसान तरीका नया विवाद खड़ा करना है। इसलिए अचानक से चार साल से बक्से में बंद सीएए का जिन्न बाहर आ गया। लोकसभा में पारित होने और राष्ट्रपति की मंजूरी के चार साल से अधिक समय बाद, विवादास्पद नागरिकता (संशोधन) अधिनियम को आम चुनाव से पहले अधिसूचित किया गया है।

सीएए मुसलमानों को छोड़कर पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के सभी शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता देने की प्रक्रिया को तेज करता है। भारतीय जनता पार्टी अधिसूचना में देरी के लिए चुनावी मजबूरियों के अलावा अन्य कारकों को जिम्मेदार मानना चाह सकती है। सीएए का देश के बड़े हिस्से में जोरदार विरोध प्रदर्शन हुआ था।

फिर, कोविड महामारी के कारण और देरी हुई। लेकिन राजनीति में समय का बहुत महत्व है। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि सीएए की तलवार का म्यान आने वाले चुनावों को ध्यान में रखते हुए किया गया है। नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी का मानना ​​है कि यह कानून हिंदू वोट – भाजपा के मुख्य निर्वाचन क्षेत्र – को विशेष रूप से असम और बंगाल में एकजुट करने में मदद करेगा। उदाहरण के लिए, बंगाल का मतुआ समुदाय, जो कि तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से आया शरणार्थी है, इसके प्रति ग्रहणशील होने की संभावना है।

भाजपा को उम्मीद है कि सीएए पर चर्चा से उसकी नीतिगत विफलताओं से ध्यान भटकेगा और साथ ही वादे पूरे करने वाले नेता के रूप में श्री मोदी की छवि भी मजबूत होगी। असम में इसके खिलाफ प्रारंभ हुआ आंदोलन इसका प्रमाण है कि फिर से देश का ध्यान भटकाने में प्रारंभिक सफलता मिल गयी है।

अब देश में नये सिरे से हिंदू मुसलमान का विवाद प्रारंभ होगा और इसी बहस की वजह से बेरोजगारी, किसान आंदोलन, एसबीआई का चुनावी बॉंड का शेल कंपनियों से रिश्ता अथवा चंदे की आड़ में लाभ देने जैसे मुद्दों से देश का ध्यान भटक जाएगा। इस दौर में यह याद रखना होगा कि सरकारी प्रसारक दूरदर्शन ने अचानक ही राम मंदिर की आरती का प्रसारण यूं ही करने का फैसला नहीं लिया होगा। फिर भी, सीएए से भाजपा को जो राजनीतिक लाभ मिलने की उम्मीद है, वह कुछ चुनौतियों के साथ आएगा।

बंगाल में, जिस राज्य पर भाजपा कुछ समय से नजर रख रही है, कानून की विवादास्पद प्रकृति के परिणामस्वरूप न केवल अल्पसंख्यक निर्वाचन क्षेत्र, बल्कि प्रगतिशील हिंदू मतदाताओं के बीच भी एकीकरण होने की संभावना है, जिनकी संख्यात्मक उपस्थिति महत्वहीन नहीं है। इससे राज्य में भाजपा का चुनावी गणित गड़बड़ा सकता है।

असम पहले से ही उबाल पर है, 16-पक्षीय संयुक्त विपक्षी मंच ने हड़ताल का आह्वान किया है। असमिया समाज के एक बड़े वर्ग का मानना है कि सीएए उसकी पहचान और संस्कृति के लिए हानिकारक है। इसके अलावा, सार्वजनिक धारणा में, सीएए अक्सर नागरिकों के लिए राष्ट्रीय रजिस्टर से जुड़ा होता है, एक और विभाजनकारी पहल जिस पर भाजपा की मुहर है, जिसके परिणाम असम के आम लोगों के लिए विनाशकारी थे, 19 लाख लोगों, जिनमें से अधिकांश हिंदू थे, ने खुद को बाहर रखा।

एनआरसी से. सीएए के सामने कानूनी बाधाएं भी हैं, शीर्ष अदालत में कई याचिकाएं दायर की गई हैं। राजनीतिक परिणाम के बावजूद, सीएए का अनावरण एक ऐसी पार्टी के रूप में भाजपा की संदिग्ध साख को बढ़ाता है जो ध्रुवीकरण से लाभ उठाती है। वैसे महाराष्ट्र में प्रवेश कर चुकी राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा देश के असली मुद्दों पर जनता का ध्यान कितना खींच पायेगी, यह भी देखने लायक बात होगी।

भाजपा के एक सांसद ने संविधान को बदलने की बात यूं ही नहीं कही है। इन सारी बातों का एक ही निहितार्थ है और वह यह है कि किसी भी तरीके से जनता की असली परेशानियों से देश का ध्यान हटाया जाए और हिंदू मुसलमान के विवाद को फिर से मुख्य धारा में शामिल कर दिया जाए। इसके जरिए ही शायद भाजपा की जीत का रास्ता और प्रशस्त होगा।

वैसे भी राज्यों द्वारा इसे लागू किये जाने के विरोध का कोई कानूनी आधार नहीं है। फिर भी कई गैर भाजपा शासित राज्यों में इसे लागू नहीं करने देने के दावे किये जा रहे हैं। ऐसा दावा करने वालों ने इस फैसले को चुनौती देने के लिए शीर्ष अदालत का रुख नहीं किया है। लिहाजा यह माना जा सकता है कि वे भी कानूनी और संवैधानिक मजबूरियों को समझते हैं और सब कुछ जानते समझते हुए भी भाजपा के इस जाल में पैर फंसा रहे हैं। विवाद बढ़ रहा है, इससे साफ है कि लोकसभा चुनाव में जीत दर्ज करने की मजबूरी क्या होती है।

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