केंद्र सरकार तथा उनके नुमाइंदों की परेशानी इनदिनों बढ़ गयी है। दरअसल पहले सिर्फ मुख्य धारा की मीडिया के जरिए अपनी बात रखने में सफल मोदी सरकार अब जनता तक दूसरी आवाज को पहुंचने से रोक नहीं पा रही है। इसी वजह से लगातार नफरत फैलाने वाले चैनल भी सुप्रीम कोर्ट के निर्देश से परेशान है। वैकल्पिक मीडिया अब इतना ताकतवर हो गया है कि प्रमुख टीवी चैनलों से प्रसारित खबरों का अब असर खत्म हो चुका है।
यूट्यूब, फेसबुक और ट्विटर पर उन खबरों की बाढ़ आ गयी है, जिन्हें पहले सरकार रोकने का भरसक प्रयास करती थी। इसी वजह से अब सांप्रदायिकता का दांव खेलने वालों का भविष्य क्या होगा, यह सवालों के घेरे में है। हरियाणा के नूंह में हुई साम्प्रदायिक झड़पों के बाद एक विशेष समुदाय के आर्थिक बहिष्कार के आह्वान की खबरें लगातार आ रही हैं।
एक ही समुदाय के लोगों को दुकानों पर काम पर न रखने या उनकी दुकानों से खरीदारी नहीं करने और ग्रामीण क्षेत्रों में उनका बहिष्कार करने की अपीलें सामने आई हैं। सोशल मीडिया पर ऐसे वीडियो वायरल हो रहे हैं, जिनमें कहा गया है कि जो इन लोगों से वास्ता रखेगा उन्हें गद्दार कहा जाएगा। इन वीडियो में कुछ लोग पुलिस अधिकारियों के सामने ही चेतावनी देते नजर आ रहे हैं।
पिछले हफ्ते ही देश की सर्वोच्च अदालत ने हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश को यह सुनिश्चित करने का आदेश दिया था कि विश्व हिन्दू परिषद द्वारा आयोजित रैलियों के दौरान कोई नफरत भरा भाषण न दिया जाए और न ही कोई हिंसा हो। अब नफरत भरा भाषण रोकने के निर्देश के बाद मोदी समर्थक चैनल परेशान है। भारत विविधता में एकता का परिचायक है। देश के ग्रामीण इलाकों में सभी धर्मों के लोग साम्प्रदायिक सद्भाव से रहते आए हैं।
लेकिन नूंह हिंसा के परिणामस्वरूप समाज में विभाजन और गहरा हो गया है। दूसरी तरफ ऐसा क्यों हो रहा है और अपराधी चरित्र के लोग हिंदू समाज के अगुवा कैसे बन गये हैं, यह सवाल भी उतनी ही तेजी से उठ खड़ा हुआ है। संविधान के अनुरूप हर भारतवासी को बराबर के अधिकार हैं और हरेक व्यक्ति को देश के किसी भी कोने में नौकरी या कारोबार करने का अधिकार है। कभी-कभी कुछ मुद्दों पर समाज में असहमति नजर आती है।
लेकिन किसी भी समुदाय का सामाजिक या आर्थिक बहिष्कार समाज को सामूहिक रूप से नुक्सान पहुंचाने के लिए एक खतरनाक प्रेरणा बन सकता है। वोट बैंक की राजनीति के चलते उत्तर प्रदेश के गांवों से भी ऐसी आवाजें उठने लगी हैं। पहले देश में कभी जाति वर्चस्व के नाम पर दलितों का बहिष्कार किया गया। आज भी निम्न जाति से संबंध रखने वाले दूल्हों को घोड़ी पर चढ़कर उच्च जाति के इलाकों से बारात निकालने की अनुमति नहीं दी जाती।
अब बिहार में जातिगत जनगणना की वजह से कई परंपराएं टूटने जा रही हैं। यह नारा भी लोकप्रिय हो चुका है कि जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी। इसका अर्थ साफ है। फिर भी असली सवाल टीवी चैनलों और उनके एंकरों का है। सरकार जब यह मान लेगी कि उनके जरिए सिर्फ अपनी बात रखने का मौका खत्म हो चुका है तो भारतीय राजनीति में यूज एंड थ्रो की परंपरा है।
तब इन लोगों का क्या होगा। जिस केंद्रीय संरक्षण में इनलोगों ने काफी धन कमाया है, वह स्रोत अगर बंद या कम हो गया तो काम कैसे चलेगा। दरअसल सिर्फ सरकारी प्रचार की वजह से आम जनता के बीच भी वैकल्पिक मीडिया ने यह बता दिया है कि इन चैनलों का असली काम क्या है। इसलिए बाजार से उन्हें विज्ञापन कितना मिलेगा, यह तो बड़ा सवाल है।
हमें समाज में समरसत्ता, प्रेम और भाईचारे के महत्व को समझने की जरूरत है, ताकि सभी समुदाय मिलकर एक मजबूत और विकसित समाज की नींव रख सकें। इस तरह के बहिष्कार की अपीलें करने वालों के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई के लिए पहले ही काफी प्रावधान हैं। दोषियों को जेल भेजा जा सकता है।
लेकिन इन नफरत फैलाने वाले चैनलों को लेकर यह सवाल भी प्रासंगिक है कि उनकी सामाजिक ताकत खत्म या कम होने के बाद उन्हें क्या सरकार से वही संरक्षण प्राप्त होता रहेगा। दूसरे सोशल मीडिया माध्यम अब इतनी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं कि इन चैनलों में किसी एजेंडा के तहत चलाया गया समाचार बुरी तरफ फेल कर रहा है।
इसके लिए स्मृति ईरानी प्रकरण ताजा उदाहरण है। इससे आगे का सवाल यह है कि अगर कहीं सरकार बदल गयी तो अब तक इन चैनलों ने जो कुछ बोया है, क्या वे इसकी फसल को काटने के लिए तैयार हैं या फिर अचानक हुए सत्ता परिवर्तन के साथ ही इनका चेहरा भी रातोंरात बदल जाएगा, जिसके संकेत अभी से ही मिलने लगे हैं। लेकिन इसके बाद भी वे टिक पायेंग या नहीं, यह तो राहुल गांधी के उस अंदाज से साफ है कि ऐसे चैनलों के सवालों का अब वह उत्तर भी नहीं देते हैं।