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चलो कहीं और चलते हैं

नये संसद भवन के उदघाटन से पहले ही नरेंद्र मोदी ने फिर से विपक्ष को बोल्ड आउट कर दिया। बेचारे बड़ी जोर शोर से कमर कसकर विरोधी माहौल बनाने निकले थे लेकिन उनके मुकाबले मोदी की किलेबंदी भारी पड़ गयी। साथ ही यह भी धीरे धीरे साफ होता जा रहा है कि कोई कितनी भी कोशिश कर ले लेकिन भाजपा के विरोध में विपक्ष की मुहिम को कई राज्यों में समर्थन नहीं मिलेगा।

इनके नेता भाजपा से समान दूरी बनाये रखने के बाद भी ऐसे अवसरों पर मोदी के साथ ही खड़े होंगे। अब सात राज्यों के मुख्यमंत्रियों के नीति आयोग की बैठक का वहिष्कार करने से भी क्या फायदा। हां एक बात जरूर है कि कांग्रेस के नेताओं के मुकाबले दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल अधिक तेज गति से काम करते हैं।

कांग्रेस अभी कर्नाटक की जीत की खुमारी में थी तो केजरीवाल तीन राज्यों का दौरा कर आये। अब यह सारे लोग नये संसद भवन को लेकर इसलिए परेशान है क्योंकि इसका उदघाटन नरेंद्र मोदी क्यों कर रहे हैं। अरे भाई कोई कर ले पर रहेगा तो संसद ही। वहां सही ढंग से जनता का काम काज हो, यह जरूरी बात है। वरना इस संसद में क्या कुछ हो रहा है वह तो पब्लिक देख ही रही है।

मानता हूं कि चुनाव आ रहा है तो हर मुद्दे पर नहीं बोलेंगे तो मैंगो मैन याद कैसे रखेगा पर क्या बोल रहे हैं और आम आदमी पर उसका क्या असर हो रहा है, यह तो पक्ष और विपक्ष दोनों को देखना पड़ेगा। वइसे एगो कंफ्यूजन है कि लोकतांत्रिक देश में राजदंड को लेकर इतना हाय तौबा क्यों है। उसे स्थापित करना मुद्दों से भटकाना तो नहीं।

इस सेंगोल पर अमित शाह लंबा चौड़ा झान बांट गये पर मणिपुर की हिंसा पर सरकार चुप है। अब तो सुना है वहां पब्लिक ही भाजपा नेताओं को दौड़ाने लगी है। दौड़ाने की बात से याद आया कि पश्चिम बंगाल में नंबर दो नेता यानी ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक को भी लोगों ने दौड़ा दिया। वह भी कहीं और चलते हुए कहकर तीन किलोमीटर तक पैदल चले।

अब दिल्ली के अफसरों की भी बात कर लें। सुप्रीम कोर्ट का आदेश आया तो इन अफसरों का एक खेमा बेचैन हो गया। देश का नवसामंत वर्ग पढ़े लिखे तबके से इतना भयभीत क्यों हैं। हर रोज कुछ न कुछ शिकायत करने में जुटे हैं। अरे याद पहले से सोचना था कि पार्टी बन रहे हैं तो दो पाटों के बीच पिसना तो पड़ेगा। केंद्रीय कैडर के अफसर हो तो तबादला लेकर कहीं और चले जाओ, इसमें क्या परेशानी है।

इसी बात पर वर्ष 1978 में बनी फिल्म नया दौर का एक गीत याद आ रहा है। इस गीत को लिखा था आनंद बक्षी ने और संगीत में ढाला था राहुल देव वर्मन ने। गीत के बोल कुछ इस तरह हैं।

चलो कहीं और चलते है चलो कहीं और चलते है
चलो कहीं और चलते है सुनते है यहाँ छुपके
बाटे लोग जलते है चलो कहीं और चलते है

है ये जगह खूब है लेकिन कितनी धूप है
पेड़ के निचे बैठेंगे अ नहीं दिवार के पीछे बैठे
दीवारों के भी कान होते है ओ हो आप यु ही बदगुमा होते है

लो तो फिर होगी कब तक यु तरसाओगे
दो दिल बेक़रार है मुश्किल इंतज़ार है
मेरा भी ये हाल है शादी में एक साल है
साल में कितने दिन है जीतने है तेरे बिन है

यही बातें सोच के तो दिन रात ढलते है
चलो कहीं और चलते है ऐसे तुम क्यों खो गए
हम भी दीवाने हो गए हा ये दीवानापन छोडो
देखो यु दिल न तोड़ो दिन रात तेरी याद आती है

नींद यहाँ किसे आती है रुत का प्यार सारा है
मौसम बड़ा प्यारा है फिर कब मिलने आओगे
जब भी तुम बुलाओगे कल का वादा कर जाओ

अच्छा अब तुम घर जाओ जितना वक़्त भी अपना था
कितना सुन्दर सपना था सपने कभी कभी झुटे निकलते है
चलो कहीं और चलते है चलो कहीं और चलते है

अब चलते चले झारखंड की भी बात कर लें। राष्ट्रपति ने देश के मुख्य न्यायादीश के बहाने देश के जजों को जो संदेश दिया है, वह भी कहता है कि अब माई लार्ड लोगों को भी दिमाग से कहीं और चलना चाहिए। फर्राटेदार अंग्रेजी से देश की जनता का सरोकार नहीं है, यह महामहिम ने रांची के अपने भाषण में समझा दिया है।

इसलिए अब इसका क्या असर होता है, यह देखने वाली बात होगी। मोदी जी का पैर छुकर किसी दूसरे देश के राष्ट्र प्रधान ने सम्मान क्या कर दिया, फिर अपोजिशन वाले जलने लगे। भाई किस बात की जलन है। पैर छुने से या मोदी के पैर छुने से। अपनी सरकार थी तो काम करना था ना, यही बात तो दिल्ली में भाजपा के लिए भी लागू होती है। काम किया होता तो यह परेशानी तो नहीं होती श्रीमान।

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