भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरीके से दिल्ली के लिए नया अध्यादेश जारी किया है, उससे साफ है कि भाजपा अपने केंद्र सरकार के जरिए दिल्ली के अफसरों पर नियंत्रण रखना चाहती है। वहां के सेवा विभाग के प्रमुख आशीष मोरे इस अध्यादेश के जारी होने के बाद जिस भाषा में बोल रहे हैं, उससे भी साफ है कि उनकी पीठ पर अमित शाह का हाथ है।
लेकिन सवाल यह है कि इस किस्म के फैसले से भाजपा को राजनीतिक नुकसान होने की बात भाजपा वाले भी समझ रहे होंगे। फिर वह कौन सी बात है, जिसकी वजह से भाजपा डरी हुई है। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने यह तय कर दिया कि केंद्र के अधीन कार्यरत विषयों को छोड़कर शेष सभी में चुनी हुई दिल्ली सरकार का फैसला ही अंतिम होगा।
इसे लागू करने में की गयी आनाकानी के बाद एक नया अध्यादेश आ गया, जिसमें फिर से उप राज्यपाल को अधिक शक्तियां प्रदान की गयी हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की निर्वाचित सरकार को सेवाओं और स्थानांतरण-पोस्टिंग और अधिकारियों पर अनुशासन के संबंध में निर्णय लेने की शक्ति देने के पांच-न्यायाधीशों की पीठ के फैसले के कुछ दिनों बाद, केंद्र ने अधिकार देने के लिए एक नया अध्यादेश बाजार में उतार दिया।
अब जीएनसीटीडी अधिनियम में संशोधन ने अब एक राष्ट्रीय राजधानी सिविल सेवा प्राधिकरण बनाया है जो अब स्थानांतरण पोस्टिंग, सतर्कता और अन्य प्रासंगिक मामलों से संबंधित मामलों के बारे में उपराज्यपाल को सिफारिशें करेगा।
इसमें दिल्ली के निर्वाचित मुख्यमंत्री, दिल्ली के मुख्य सचिव और GNCTD के प्रधान सचिव, गृह शामिल होंगे। जाहिर है कि मुख्यमंत्री अल्पमत में होने की वजह से कोई फैसला नहीं ले सकेंगे। अध्यादेश के उद्देश्यों और कारणों के बयान में कहा गया है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) अध्यादेश, 2023 को एनसीटीडी और अन्य संबद्ध मुद्दों के कामकाज में तैनात सेवाओं के प्रशासन की एक व्यापक योजना प्रदान करने का प्रस्ताव है जिससे संतुलन बना रहे।
पूरे देश की लोकतांत्रिक इच्छा के साथ एनसीटीडी में रहने वाले लोगों के स्थानीय और घरेलू हित भारत के राष्ट्रपति के माध्यम से परिलक्षित होते हैं। अध्यादेश में ग्रुप बी और ग्रुप सी के अधिकारियों की तबादला, पोस्टिंग, अनुशासन आदि के संबंध में कोई विशेष प्रावधान नहीं है, जिससे लगता है कि दिल्ली की चुनी हुई सरकार का इन अधिकारियों पर सेवा नियमों के तहत नियंत्रण बना रहेगा, क्योंकि ये पहले से मौजूद थे।
एक विवाद पैदा हो गया है कि हालांकि दिल्ली के मुख्यमंत्री इस प्राधिकरण के अध्यक्ष हैं, धारा 45 ई के तहत प्रावधान प्राधिकरण द्वारा बहुमत निर्णय के लिए कहता है, और दो सदस्यों को आधिकारिक बनाने की अनुमति भी देता है। यानी मुख्यमंत्री अल्पमत में होंगे।
नए अध्यादेश के तहत, मुख्य सचिव और गृह सचिव संभावित रूप से तबादला/तैनाती, सतर्कता, अनुशासन आदि के बारे में निर्णय ले सकते हैं और उपराज्यपाल को सिफारिश भेज सकते हैं, मुख्यमंत्री के बैठक में उपस्थित होने के बिना भी।
इसके अलावा, प्राधिकरण और एलजी के बीच मतभेद होने की स्थिति में अध्यादेश उपराज्यपाल को अंतिम निर्णय लेने की शक्ति देता है। इससे साफ है कि दरअसल केंद्र सरकार के इस अध्यादेश के जरिए भाजपा क्या चाहती है। दिल्ली सरकार के वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने इस मुद्दे पर अच्छी बात कही है कि भाजपा की वह हालत हो गयी है कि वह जब मैच हारने लगे तो खेल के नियम ही बदल दे।
दूसरी तरफ भाजपा की तरफ से यह दलील दी गयी है कि सुप्रीम कोर्ट ने जो आदेश जारी किया है, उसका आम आदमी पार्टी ने ध्यान से अध्ययन नहीं किया है। इसमें साफ समझने वाली बात है कि यह फैसला सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ से आया है। इसलिए जो कुछ भी कहा गया है, वह संविधान सम्मत है।
लिहाजा अगर उस आदेश के खिलाफ कोई नया फैसला लागू किया जाता है तो जाहिर तौर पर वह संविधान के खिलाफ ही होगा। लेकिन असली मसला उस बेचैनी का है, जो भाजपा के साथ साथ दिल्ली में पदस्थापित कई अधिकारियों में भी दिख रहा है।
इसलिए सवाल यह उठ रहा है कि सामान्य राजनीतिक हित के बदले वह कौन सा हित है, जिस पर भाजपा इन अधिकारियों के जरिए नियंत्रण रखना चाहती है। सरकार द्वारा भेजी गयी फाइलों को अपने पास लटकाने का फार्मूला तो एलजी के पास था अब अफसरों को केंद्र सरकार या यूं कहें कि अमित शाह के और करीब लाने की जरूरत भाजपा को क्यों पड़ रही है।
क्या सुप्रीम कोर्ट का दिल्ली नगर निगम पर दिया गया फैसला ही इसके मूल में हैं। इस दिल्ली नगर निगम के भ्रष्टाचार और वहां भी केजरीवाल सरकार के मॉडलों को लागू करने की तैयारी से आखिर कौन दरअसल भयभीत है। दिल्ली की जनता को इस फैसले का स्वागत नहीं करेगी क्योंकि उसने इन कार्यों के लिए ही एक सरकार के पक्ष में वोट दिया है।