पारसनाथ पर केंद्र सरकार ने आनन फानन में फैसला लिया है। पूर्व की रघुवर दास सरकार की सिफारिशों को दरकिनार करते हुए केंद्र ने हेमंत सोरेन के पत्र को प्राथमिकता दी है। इस त्वरित फैसले की वजह से अब पारसनाथ का सम्मेद शिखर जैन तीर्थस्थल ही बना रहेगा।
इस बीच आदिवासियों की मांग का भी समर्थन होने लगा है, जिसमें उनलोगों ने कहा है कि यह दरअसल उनका धार्मिक स्थल है, जिसे जैन धर्म को मानने वालों ने बाद में हथिया लिया है। इसके समर्थन में ब्रिटिश काल के दस्तावेज भी निकलकर सामने आने लगे हैं। इसमें असली मतभेद यह है कि आदिवासी परंपरा में अपने ईश्वर की पूजा में बलि देने की प्रथा है जबकि जैन धर्म इसपर सख्ती पाबंदी की हिदायत देता है।
वैसे भी विवाद के जारी रहने से यह स्पष्ट हो गया है कि इस जंगली इलाके में अब नक्सली प्रभाव खत्म हो चुका है। वरना एक दशक पहले वहां पुलिस भी जाने से कतराती थी और पहाड़ पर नक्सलियों का ट्रेनिंग कैंप चला करता था। वहां जाने वाले श्रद्धालुओं से उनका आमना सामना होता रहता था।
अब वह स्थिति नहीं है और उसका श्रेय राज्य के वर्तमान डीजीपी नीरज सिन्हा को जाता है, जिन्होंने पहली बार झूमरा पहाड़ पर रात गुजारकर नक्सलियों के वर्चस्व और भय को समाप्त कर दिया था। खैर पारसनाथ के मुद्दे पर आदिवासी समुदाय के दावों को यूं ही नकारा भी नहीं जा सकता।
आदिवासियों ने इसे दरअसल अपना धर्मस्थल बताया है और इसे जैनियों के कब्जे से मुक्त करन की मांग की है। संथाल जनजाति के नेतृत्व वाले राज्य के आदिवासी समुदाय ने पारसनाथ पहाड़ी को ‘मरांग बुरु’ (पहाड़ी देवता या शक्ति का सर्वोच्च स्रोत) करार दिया है। देश भर के जैन धर्मावलम्बी पारसनाथ पहाड़ी को पर्यटन स्थल के रूप में नामित करने वाली झारखंड सरकार की 2019 की अधिसूचना को रद्द करने की मांग कर रहे थे।
उन्हें डर था कि उनके पवित्र स्थल पर मांसाहारी भोजन और शराब का सेवन करने वाले पर्यटकों का तांता लग जाएगा। दूसरी तरफ आदिवासी समुदाय के कई प्रमुख लोगों ने इसे आदिवासी पूजा स्थल बताने के साथ साथ पुराने दस्तावेजों का हवाला भी दिया है। यह दावा किया गया है कि 1956 के राजपत्र में इसे ‘मरांग बुरु’ के रूप में उल्लेख किया गया है।
जैन समुदाय अतीत में पारसनाथ के लिए कानूनी लड़ाई हार गया था। संथाल जनजाति देश के सबसे बड़े अनुसूचित जनजाति समुदाय में से एक है, जिसकी झारखंड, बिहार, ओडिशा, असम और पश्चिम बंगाल में अच्छी खासी आबादी है और ये प्रकृति पूजक हैं। जो संगठन इस लड़ाई में आगे आया है उस परिषद की संरक्षक स्वयं राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और इसके अध्यक्ष असम के पूर्व सांसद पी मांझी हैं। इसलिए यह विवाद इतनी जल्दी सुलझने वाला नहीं है।
आदिवासियों के दावों को यूं ही नकारा भी नहीं जा सकता है। उदाहरण के लिए हम रांची के सामलौंग के एक शिव मंदिर को देख सकते हैं, जहां भक्तों की भीड़ लगी रहती है। लेकिन करीब बीस वर्ष पहले यहां पर महात्मा बुद्ध की प्रतिमा स्थापित थी। जिसे बाद में भगवान शिव का स्वरुप प्रदान कर दिया गया। यह एक सत्य है।
इसलिए केंद्र सरकार के फैसले में इसे जैनियों का तीर्थस्थल बनाये रखने के बाद भी दो समुदायों के बीच की दावेदारी इतनी जल्दी समाप्त नहीं होने जा रही है। दस्तावेज भी आदिवासियों के दावों का समर्थन करते हैं।
राजनीतिक दलों की परेशानी यह भी है कि यह विवाद वोट से भी जुड़ता है। राजनीतिक दल किसी अन्य बात से भले ही न डरते हों लेकिन वोट खिसक जाने का भय सभी दलों में बराबर होता है। आदिवासी संगठन पुराने हजारीबाग गजट में लिखी बातों का उद्धृत करते हुए वहां की स्थिति बता रहे हैं।
इसमें कहा गया है कि यहां पर संथाल आदिवासियों का पहाड़ों का देवता मरांग बुरू का निवास है, जहां हर साल आदिवासी अपनी पूजा करने आते हैं। इसके अलावा आदिवासियों के शिकार का पर्व भी यहां के जंगलो में होता था।
जाहिर है कि इससे स्पष्ट है कि जैनियों का यहां आगमन बाद के काल में हुआ है। अब राजनीतिक दलों की परेशानी यह है कि सिर्फ झारखंड ही नहीं बल्कि पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल में भी संथालों की आबादी बहुत अधिक है। इसलिए राजनीतिक दलों की परेशानी यह है कि वे वोट बैंक को ध्यान में रखकर क्या फैसला लें।
जाहिर सी बात है कि आदिवासी तथा गैर भाजपा दलों का झुकाव आदिवासियों की तरफ होगा क्योंकि जैनियों ने खुद को काफी पहले से भाजपा के समर्थक के तौर पर चिन्हित करा लिया है। अलबत्ता इसमें अपवाद भी हैं। कुल मिलाकर यह लड़ाई अब अदालत में कम और राजनीति के अखाड़े में अधिक लड़ी जाएगी।