नोटबंदी के फैसले को जायज ठहराने की दलील तो केंद्र सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक की तरफ से दी गयी थी। अब आगामी दो जनवरी को इस विषय पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के पहले ही यह जाहिर हो गया है कि मौखिक तौर पर सरकार ने इस नोटबंदी के समर्थन में जो दावे किये थे, वे दरअसल सच्चाई से कोसों दूर हैं।
साथ ही यह भी साफ हो गया है कि यह फैसला पूरे देश पर लागू करने के पहले भारतीय रिजर्व बैंक तथा दूसरे संबंधित विभागों से कोई चर्चा नहीं की गयी थी। दूसरे शब्दों में यह प्रधानमंत्री मोदी का व्यक्तिगत फैसला था, जिसे बाद में कानूनी जामा पहनाने का काम किया गया है।
केंद्र सरकार ने कोर्ट में पेश किए अपने हलफ़नामे में कहा है कि नोटबंदी एक सोचा-समझा फ़ैसला था जिस पर आरबीआई के साथ नोटबंदी से नौ महीने पहले फ़रवरी, 2016 में सलाह-मशविरे का दौर शुरू हुआ था। आरबीआई ने भी अपने हलफ़नामे में कोर्ट से कहा है कि नोटबंदी में तय प्रक्रिया का पालन हुआ था और ये क़दम उसकी ही अनुशंसा पर उठाया गया था।
आरबीआई और केंद्र सरकार ने अपने हलफ़नामों में आरबीआई की ओर से की गई उन आलोचनाओं का ज़िक्र नहीं किया है जिनमें बैंक के सेंट्रल बोर्ड ने सरकार के उन तर्कों की आलोचना की थी जिनके आधार पर नोटबंदी को ज़रूरी फ़ैसला ठहराया गया था। लेकिन इस बहस के दौरान कोर्ट को ये भी नहीं बताया गया है कि केंद्रीय बैंक की ओर से सरकार को ये क़दम उठाने के लिए अनिवार्य अनुशंसा किए जाने से पहले ही इन आलोचनाओं को दर्ज कराया गया था।
बता दें कि आठ नवंबर, 2016 को पीएम नरेंद्र मोदी की ओर से नोटबंदी का एलान करने से कुछ घंटे पहले ही आरबीआई ने अपने अपने सेंट्रल बोर्ड की मीटिंग में उठाए गए सवालों को मिनट्स ऑफ़ मीटिंग के रूप में औपचारिक रूप से दर्ज किया था। पीएम मोदी ने देश के नाम आठ नवंबर, 2016 को दिए संदेश में कहा था कि जो मुद्रा इस समय चलन में है, उसका भ्रष्टाचार से सीधा संबंध है। लेकिन इन हलफ़नामों में ये नहीं बताया गया है कि कैश टू जीडीपी अनुपात नोटबंदी के बाद तीन साल के अंदर ही नोटबंदी से पहले वाले स्तर पर पहुंच गया।
हलफ़नामे में ये भी बताया गया है कि पिछले पांच सालों में 50 और 100 के नोटों की तुलना में 500 और 100 के नोटों को जारी करने की दर में क्रमश: 76.38 फ़ीसद और 108.98 फ़ीसद बढ़ोतरी दर्ज की गयी है। पूरी अर्थव्यवस्था में हुई प्रगति से तुलना करने पर ये वृद्धि दर अस्पष्ट नज़र आती है। इन हलफ़नामों में यह भी नहीं बताया गया है कि आरबीआई के केंद्रीय बोर्ड ने सरकार के इस विश्लेषण पर सवाल उठाए थे।
नोटबंदी के एलान से ठीक ढाई घंटे पहले शाम पांच बजकर तीस मिनट पर हुई इस मीटिंग में आरबीआई के केंद्रीय बोर्ड ने कहा कि ‘अर्थव्यवस्था में वृद्धि की जो दर बताई गयी है, वो ठीक है, उसके लिहाज से कैश इन सर्कुलेशन में वृद्धि नाममात्र है। इन्फ़्लेशन को ध्यान में रखा जाए तो अंतर इतना ज़्यादा नहीं नज़र आएगा।
ऐसे में ये तर्क पूरी तरह से नोटबंदी के फ़ैसले का समर्थन नहीं करता। इस हलफ़नामे में ये नहीं बताया गया है कि आरबीआई के केंद्रीय बोर्ड ने इस तर्क पर अपनी प्रतिक्रिया में कहा था – हालांकि, जाली नोटों का होना एक चिंता का विषय है लेकिन चलन में जाली नोटों का मूल्य चार सौ करोड़ रुपये है जो कि 17 लाख करोड़ रुपये के असली नोटों की तुलना में बहुत ज़्यादा नहीं है।
केंद्र सरकार ने अपने हलफ़नामे में ये भी बताया है कि नोटबंदी का मक़सद बेनामी संपत्ति की समस्या दूर करना भी है जो ऊंचे मूल्य वाले नोटों के ज़रिए जमा की जाती है और जो अक्सर जाली नोट होते हैं। आरबीआई के सेंट्रल बोर्ड ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि ज़्यादातर काला धन नक़दी के रूप में नहीं बल्कि सोने और ज़मीनों के रूप में जमा किया गया है और नोटबंदी से इन संपत्तियों पर बड़ा असर नहीं पड़ेगा।
दूसरी तरफ केंद्र सरकार ने अपने हलफ़नामे में लिखा है कि इस क़दम का उद्देश्य जाली मुद्रा के ज़रिए आतंकवाद और ऐसी ही दूसरी गतिविधियों को रोकना था। अब स्पष्ट है कि इनमें से कोई भी लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया। इससे साफ है कि सुप्रीम कोर्ट में दिये गये इन तर्कों में जो विरोधाभाष है वह दूसरी कहानी बयां करता है। अब इससे जो अगला सवाल निकल कर आता है कि फिर इस नोटबंदी के जरिए आखिर फायदा किसे पहुंचाया गया। यह सवाल बार बार राजनीतिक मंचों पर तो दोहराया जाता रहा है। दूसरी तरफ विदेशी बैंकों में भारतीय पैसा का बढ़ना भी दूसरी कहानी कह रहा है।