दिल्ली दरबार में दोस्ती की कसमें खायी जा रही है। वइसे आपलोगों को फिर से याद दिला दें कि इंडियन पॉलिटिक्स में इस किस्म की दोस्ती का कोई मोल नहीं होता। जहां लगेगा कि अपनी राजनीतिक गाड़ी का इंजन अटक रहा है, भाई लोग तुरंत किनारे लग जाएंगे। जी हां मैं खास तौर पर नीतीश कुमार की बात कर रहा हूं। यह तो पहले से ही जगजाहिर है कि चंद्राबाबू नायडू अपने पूर्व अनुभवों को नहीं भूले हैं और जगन रेड्डी के शासन काल में जिस तरीके से उन्हें प्रताड़ित किया गया, वह भी उन्हें याद है। नतीजा है कि जगन रेड्डी के कार्यकाल के अफसरों से वह मिल भी नहीं रहे हैं। तीन चार बड़े अफसर फूलों का गुलदस्ता लेकर मिलने पहुंचे थे पर दरवाजे से ही उन्हें सीधे सीधे लौटा दिया गया।
लेकिन भाईलोगों को अपने नीतीश कुमार के हाव भाव से हैरानी हो रही है। बेचारे ने कल पुराने संसद भवन में तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने जा रहे नरेंद्र मोदी के पैर स्पर्श कर प्रणाम करने की कोशिश तक की। नीतीश कुमार को जानने वाले यह देखकर हैरान है क्योंकि आम तौर पर उन्हें एक कम बोलने वाला और काम से काम रखने वाला नेता के तौर पर पहचाना जाता है।
जाहिर है कि इतनी अधिक भक्ति दिखाने के असली राज पर तो सवाल उठेंगे ही। उनके बारे में यह पुरानी कहावत है कि उनके पेट में दांत है। इसलिए उनके विरोधी और समर्थक कभी सही तरीके से यह सोच नहीं पाते कि वह क्या सोच रहे हैं और आगे क्या करने वाले हैं। ऐसे व्यक्ति का इतना विनम्र आचरण हैरान करने वाला है।
भाई लोग बिहार का एक बड़ा मामला सीबीआई में फंसा हुआ है। भागलपुर का सृजन घोटाला, जिसमें श्री कुमार के कई कृपापात्र अधिकारी फंसे हुए हैं। शुरुआत में तो सीबीआई से ज्यादा बिहार पुलिस सक्रिय थी लेकिन सीबीआई में जाते ही मामला ठंडा पड़ गया। कहीं ऐसा तो नहीं कि यही सृजन घोटाला अपने नीतीश बाबू को परेशान कर रहा है। हजार करोड़ से ऊपर का सरकारी पैसा निजी सहकारी संस्था के खाता में जाना और वहां से उड़नछू हो जाना कोई सामान्य बात तो नहीं थी। इसलिए भविष्य की खिड़की पर नजर गड़ाये रखिये कि आगे आगे क्या होता है।
इसी बात पर फिल्म दोस्ताना का यह गीत याद आने लगा है। इस गीत को लिखा था आनंद बक्षी ने और संगीत में ढाला था लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने। इसे किशोर कुमार और मोहम्मद रफी ने अपना स्वर दिया था। गीत के बोल कुछ इस तरह हैं।
बने चाहे दुश्मन ज़माना हमारा
सलामत रहे दोस्ताना हमारा
बने चाहे दुश्मन ज़माना हमारा
सलामत रहे दोस्ताना हमारा सलामत रहे दोस्ताना हमारा
बने चाहे दुश्मन ज़माना हमारा(बने चाहे दुश्मन ज़माना हमारा)
सलामत रहे दोस्ताना हमारा(सलामत रहे दोस्ताना हमारा)
वह ख़्वाबों के दिन वह किताबों के दिन
वह ख़्वाबों के दिन वह किताबों के दिन
सवालों की रातें जवाबो के दिन
कई साल हमने गुज़ारे यहाँ
यहीं साथ खेले हुए हम जवान
हुए हम जवान था बचपन बड़ा
आशिक़ाना हमारा
सलामत रहे दोस्ताना हमारा
बने चाहे दुश्मन ज़माना हमारा(बने चाहे दुश्मन ज़माना हमारा)
सलामत रहे दोस्ताना हमारा(सलामत रहे दोस्ताना हमारा)
न बिछड़ेंगे मर के भी हम दोस्तों
न बिछड़ेंगे मर के भी हम दोस्तों
हमें दोस्ती की कसम दोस्तों
पता कोई पूछे तो कहते हैं हम
के एक दूजे के दिल में रहते हैं हम
रहते हैं हम
नहीं और कोई ठिकाना हमारा
सलामत रहे दोस्ताना हमारा
बने चाहे दुश्मन ज़माना हमारा(बने चाहे दुश्मन ज़माना हमारा)
सलामत रहे दोस्ताना हमारा(सलामत रहे दोस्ताना हमारा)
सलामत रहे दोस्ताना हमारा
बने चाहे दुश्मन ज़माना हमारा(बने चाहे दुश्मन ज़माना हमारा)
सलामत रहे दोस्ताना हमारा.(सलामत रहे दोस्ताना हमारा)
अब चलते चलते दिल्ली की भी बात कर लेते हैं। लोकसभा चुनाव हारे तो तुरंत ही दोस्ती खत्म हो गयी। आम आदमी पार्टी ने साफ कर दिया कि वह विधानसभा चुनाव कांग्रेस के साथ मिलकर नहीं लड़ेगी। इसे भी दोस्ती कहते हैं और यह इंडियन पॉलिटिक्स की दोस्ती है। जहां मामला अपने खिलाफ गया तो कंधा झटको और आगे निकलो।
अब देखना है कि यूपी में राहुल और अखिलेश यादव की दोस्ती का क्या होता है। दोनों ने मिलकर मोदी और योगी का पसीना छुड़ा दिया है और वाकई यह चर्चा होने लगी है कि अब योगी बाबा की भी कुर्सी जाने वाली है। लेकिन असली सवाल को दिल्ली दरबार में छिपा है। मोदी और शाह की दोस्ती पर नायडू और नीतीश कुमार का क्या असर पड़ेगा, यह देखने वाली बात होगी। जाहिर है कि राजनीति में दोस्ती फायदा देखकर ही की जाती है। अब दोनों नये दोस्तों को मोदी के कैबिनेट और लोकसभा में क्या क्या चाहिए, यह लिस्ट तो धीरे धीरे बाहर आयेगी। आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा देने पर भाजपा शासित दूसरे राज्य क्या करेंगे, यह सवाल भी दोस्ती को सलामत रहने देगा या नहीं यह सवाल है।