वाकई चारों तरफ इस तेज धूप में लगातार घूम रहे हैं। चुनावी सवाल है ब्रदर। कुर्सी खिसक गयी तो सारी अकड़ धरी की धरी रह जाएगी। जो आज सलाम ठोंक रहे हैं, वे भी मौका पाते ही लाठियां भी बरसाने लगेंगे। यही असली मजबूरी है क्योंकि लोकसभा का चुनाव तो पांच साल में एक बार ही होता है और इस चुनाव से बहुत कुछ तय होता है।
अपनी सत्ता संभालने के बाद ही ही अपने मोदी जी लगभग हमेशा ही चुनावी मोड में रहते हैं। इस बार माहौल थोड़ा इसलिए बदला बदला दिख रहा है क्योंकि उनके सारे विरोधी एकजुट हो गये हैं। ऊपर से यह भी लग रहा है कि अगर सीट कम आये तो सहयोगी भी आनन फानन में साथ छोड़ देंगे। इलेक्शन पॉलिटिक्स की मजबूरी है कि इतनी गर्मी में भी चारों तरफ जाना और अपने प्रत्याशियों के लिए प्रचार करना पड़ रहा है। इतना कुछ होने के बाद भी पार्टी के कार्यकर्ता अब तक गर्मी से बचते हुए कमरों में कैद हैं। इस वजह से कैंडिडेट का टेंशन बढ़ रहा है।
मसला सिर्फ एक तरफ नहीं है बल्कि कांग्रेस और इंडिया गठबंधन के लोगों के साथ भी यही चुनौती है। वे भी जानते हैं कि इस बार फिर से मोदी जी जीत गये तो सारा कुछ उलट पुलट कर देंगे। गनीमत है कि राहुल गांधी ने दो दो पैदल यात्रा कर ली है। इन यात्राओं के बाद से घटनाओं को देखने का उनका नजरिया काफी बदल गया है। इन दोनों खेमों के बीच का असली फर्क यह है कि मोदी जी अब भी सिर्फ विरोधियों को कोसने तक सीमित है। दूसरी तरफ विरोधी गठबंधन अपने चुनावी वादों पर जनता को समझाने की कोशिश कर रहा है।
इस गीत को फिल्म रेलवे प्लेटफॉर्म के लिए तैयार किया गया था। इस ब्लैक एंड ह्वाइट फिल्म के लिए इसे लिखा था साहिर लुधियानवी ने और सुरो में ढाला था मदन मोहन ने इसे मनमोहन कृष्ण और मोहम्मद रफी ने अपना स्वर दिया था। गीत के बोल कुछ इस तरह हैं।
बस्ती-बस्ती पर्वत-पर्वत गाता जाए बंजारा
लेके दिल का इकतारा
बस्ती-बस्ती पर्वत-पर्वत …
पल दो पल का साथ हमारा पल दो पल की यारी
आज नहीं तो कल करनी है चलने की तैयारी, चलने की तैयारी
बस्ती-बस्ती पर्वत-पर्वत …
क़दम-क़दम पर होनी बैठी अपना जाल बिछाए
इस जीवन की राह में जाने कौन कहाँ रह जाए, कौन कहाँ रह जाए
बस्ती-बस्ती पर्वत-पर्वत …
धन-दौलत के पीछे क्यों है ये दुनिया दीवानी
यहाँ की दौलत यहाँ रहेगी साथ नहीं ये जानी, साथ नहीं ये जानी
बस्ती-बस्ती पर्वत-पर्वत …
सोने-चाँदी में तुलता हो जहाँ दिलों का प्यार
आँसू भी बेकार वहाँ पर आहें भी बेकार आहें भी बेकार
बस्ती-बस्ती पर्वत-पर्वत …
दुनिया के बाज़ार में आख़िर चाहत भी व्यापार बनी
तेरे दिल से उनके दिल तक चाँदी की दीवार बनी चाँदी की दीवार बनी
बस्ती-बस्ती पर्वत-पर्वत …
हम जैसों के भाग में लिखा चाहत का वरदान नहीं
जिसने हमको जनम दिया वो पत्थर है भगवान नहीं पत्थर है भगवान नहीं
बस्ती-बस्ती पर्वत-पर्वत …
इसी क्रम में अरविंद केजरीवाल और हेमंत सोरेन की भी चर्चा कर लें। दोनो को जेल में डालने के बाद भी केंद्र सरकार को कोई बहुत अधिक फायदा हुआ, ऐसा लगता नहीं है। दोनों की पत्नियों ने आगे आकर मोर्चा संभाल लिया और अब चुनाव प्रचार में फिर से सहानूभूति बटोर रही हैं। इसका असर होना तय है पर कितना असर होगा, यह तो ईवीएम से परिणाम निकलने के बाद ही पता चल पायेगा।
कुल मिलाकर माहौल तेज धूप के साथ साथ राजनीतिक कारणों से भी गर्म है। सात चरणों में चुनाव क्यों वह भी इस गर्मी में, इस बारे में अब तक कोई भरोसेमंद जानकारी नहीं मिली है। बेचारो चुनाव आयोग भी एसी कमरे में बैठकर पसीने पसीने हो रहा है। पहली बार है कि मोदी के खिलाफ लिखित शिकायत पर उसे दलों को हिदायत जारी करना पड़ गया है।
इतना ही नहीं इस बार ईवीएम और वीवीपैट पर सुप्रीम कोर्ट की भी नजर है तो बदलाव करने पड़े हैं। प्रत्याशी अगर परिणाम से संतुष्ट ना हो तो दोबारा गिनती का भुगतान कर इसकी जांच कर सकता है। चारों तरफ से गर्मी के माहौल में धरती के अलावा दिमाग भी गरम हो रहा है। इसके बीच सिर्फ चार सौ पार का नारा गायब हो गया है और लोग एकतरफा जीत वाले तमाम राज्यों से वैसा परिणाम नहीं आने का दावा अभी से ही ठोंकने लगे हैं। इसलिए चिंता में तो खुद मोदी जी भी होंगे क्योंकि अगर वाकई दो सौ सीट से कम आया तो गाड़ी उल्टी चाल चलने लगेगी और विरोधियों ने सारे मामलों की जांच कराने का एलान कर पहले से टेंशन बढ़ा रखा है।