हर तरफ से चुनावी खर्च के बढ़ने की चर्चा होती है। पहले यह दलील दी जाती थी कि बैलेट पेपर से वोट कराने का खर्च और समय बहुत अधिक लगता है। इसके विकल्प के तौर पर ईवीएम को लाया गया। इससे बूथ कब्जा और गिनती में खर्च होने वाला समय कम हो गया। अब ईवीएम भी सवालो के घेरे में है। इसलिए पिछले एक दशक में भारत में इंटरनेट का जितना विस्तार हुआ है, उसके आधार पर क्या हम अब मोबाइल फोन से ऑनलाइन वोटिंग के बारे में नहीं सोच सकते।
दरअसल यह विचार सिर्फ उस आर्थिक बोझ को कम करने के संदर्भ में है, जो अंततः जनता की जेब से जाता है। वर्तमान में सात चरणों के चुनाव में अर्धसैनिक बलो के आने जाने का खर्च एक बड़ा बोझ है। इससे राष्ट्रीय उत्पादकता बाधित होती है। अगर इन सभी को हटाकर ऑनलाइन वोटिंग को आजमाया जाए तो देश को इन खर्चो से मुक्ति मिल सकती है।
निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के सदन में ऑनलाइन वोटिंग आजमाये जा रहे हैं। वर्तमान में जमीनी तौर पर लोग, विशेष रूप से युवा पीढ़ी से संबंधित लोग, पार्टियों और नेताओं की साख, गतिविधियों और अंकित मूल्य की जांच करते हैं। वे वास्तविक गतिविधियों और नीतियों की तुलना और विरोधाभास करते हैं। कई समाचार चैनलों और प्रिंट मीडिया के अलावा, सोशल मीडिया, ऑनलाइन टीवी चैनलों और ऑनलाइन समाचार पत्रों के माध्यम से भी पर्याप्त प्रसार हो रहा है।
इसलिए हम स्थिति के अनुसार बार-बार राय बदलते हुए देखते हैं। फिर भी राजनीतिक पार्टियां और उनके नेता वोट बटोरने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ते. हम अधिकांश राजनीतिक दलों द्वारा रैलियों और बैठकों के आयोजन में प्रतिस्पर्धात्मक प्रतिस्पर्धा देखते हैं। इन प्रयासों से भले ही वोट न मिलें, लेकिन इस फिजूलखर्ची पर खर्च तो करना ही पड़ेगा।
चुनाव आयोग ने सभी पोस्टरों, बैनरों, वाहनों, बैठक सेटों, दावतों आदि के लिए लेखांकन जैसे कई सुधार लाए हैं। ईसीआई ने एक सांसद उम्मीदवार के लिए 70 लाख रुपये और एक विधायक उम्मीदवार के लिए 28 लाख रुपये की अधिकतम व्यय सीमा तय की है। यह कितना सच है, यह हर कोई जानता है। लेकिन इससे अधिक खर्च तो प्रशासनिक तौर पर होता है। लाखों वाहनो को किराये पर लेना और सैकड़ों ट्रेनों का अतिरिक्त परिचालन का खर्च इसमें शामिल है।
एक विधानसभा क्षेत्र में कम से कम 40 ग्राम पंचायतें होती हैं, प्रत्येक पंचायत में औसतन 4 गाँव होते हैं। प्रत्येक गांव में और शहरी मुख्यालय के प्रत्येक वार्ड में भी पार्टी कार्यकर्ताओं को प्रतिदिन भोजन कराकर उन्हें सक्रिय और सक्रिय रखना है। यह एक कटु सच्चाई है. अधिकारियों की कोई भी निगरानी पार्टियों और उनके कार्यकर्ताओं को इतना खर्च करने से नहीं रोक सकती। वास्तविकता यह है कि पार्टियों और उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के लिए पर्याप्त साधन संपन्न होना चाहिए।
ऊपर बताए गए खर्च बूथ खर्च के बिना हैं, जैसे बूथ एजेंटों के खर्च, मतदाताओं को लाने वाले स्वयंसेवकों और अंतिम समय में कुछ मतदाताओं को दी गई कथित संतुष्टि! ओडिशा में विधानसभा चुनाव लड़ रहे एक बड़े राजनीतिक दल ने कथित तौर पर प्रत्येक बूथ पर एक लाख खर्च करने की योजना बनाई है।
वाहन, सभा और प्रचार व्यय इस व्यय के अतिरिक्त हैं! इसलिए एक स्वयंभू सज्जन व्यक्ति या वास्तविक योग्य उम्मीदवारों वाली एक छोटी पार्टी बिल्कुल भी चुनाव लड़ने का साहस नहीं कर सकती है! इसलिए अब समय आ गया है कि हमारे 60 प्रतिशत से अधिक युवा और जागरूक नागरिकों को इस तरह के अश्लील खर्चों से छुटकारा पाने के लिए किसी पद्धति के बारे में सोचना चाहिए।
चुनाव प्रचार और प्रचार में व्यापक सुधार लाने के लिए चुनाव आयोग को सभी दलों का समर्थन लेना होगा। ऑनलाइन वोटिंग को प्रयोग के तौर पर आजमाया जा सकता है। इस प्रयोग से एक साथ दो निष्कर्षों पर पहुंचने में मदद मिलेगी। पहला तो प्रशासनिक व्यय कम हो जाएगा और दूसरा कि समय की बर्बादी अत्यधिक कम हो जाएगी।
इन दोनों विषयों के आर्थिक मूल्यांकन से हम देश में चुनाव पद्धति में सुधार की बात सोच सकते है। जब चुनाव आयोग अपना सब कुछ ऑनलाइन कर रहा है तो प्रयोग के तौर पर 54 सीटों (कुल सीटों का दस प्रतिशत) पर इसे आजमा सकता है। ऑनलाइन वोटिंग से समय और पैसा दोनों बचेगा। साथ ही हम इस प्रयोग के जरिए ऑनलाइन वोटिंग के गुण और दोषों की पहचान कर उनमें आवशयक सुधार भी कर सकेंगे। दूसरी तरफ इस ऑनलाइन वोटिंग का एक राष्ट्रीय फायदा यह होगा कि बेहतर लोग, जो पैसे की कमी से चुनाव लड़ने की सोच भी नहीं पाते, आगे आयेंगे। देश की राजनीति का जो हाल है, उसमें अब नई सोच को आगे लाने की पहल तो जनता को करनी होगी।