केंद्र सरकार ने आधार-आधारित भुगतान प्रणाली (एबीपीएस) के माध्यम से भुगतान सक्षम करने के लिए महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (एमजीएनआरईजीएस) के तहत श्रमिकों के आधार विवरण को उनके जॉब कार्ड से जोड़ने की समय सीमा 31 दिसंबर, 2023 से आगे बढ़ाने से इनकार कर दिया है।
चिंताजनक बात यह है कि यह निर्णय अब भुगतान के इस तरीके के लिए लगभग 35 प्रतिशत जॉब कार्ड धारकों और 12.7 प्रतिशत सक्रिय श्रमिकों (जिन्होंने पिछले तीन वित्तीय वर्षों में कम से कम एक दिन काम किया है) को प्रभावित करेगा, जिससे उनकी आय पर असर पड़ेगा। कई लोगों के लिए मांग-संचालित योजना।
केंद्र सरकार का दावा है कि एबीपीएस कार्यान्वयन यह सुनिश्चित करेगा कि भुगतान त्वरित हो, अस्वीकृति कम हो और सभी लीक बंद हो जाएं। सरकार का यह भी तर्क है कि चूंकि एबीपीएस 2017 से एमजीएनआरईजीएस के लिए लागू है, और क्योंकि भारत में आधार संख्या की उपलब्धता लगभग सार्वभौमिक है, एबीपीएस मजदूरी स्थानांतरित करने का एक मजबूत और सुरक्षित तरीका है।
हालाँकि, तकनीकी उपकरणों पर अत्यधिक निर्भरता के परिणामस्वरूप समस्याग्रस्त कार्यान्वयन हुआ है, जिससे लाभार्थियों को सिस्टम में सुधार के लिए उचित सहारा नहीं मिल पाया है। लिबटेक इंडिया द्वारा विश्लेषण किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले 21 महीनों में आधार और जॉब कार्ड के बीच विसंगतियों के अलावा अन्य कारणों से 7.6 करोड़ श्रमिकों के नाम हटा दिए गए हैं, जिनमें से कई गलत तरीके से किए गए हैं।
आधार-आधारित भुगतान के उपयोग के साथ अन्य मुद्दे भी हैं – जहां प्रक्रिया के किसी भी चरण में त्रुटियों के परिणामस्वरूप भुगतान विफल हो जाता है। आधार और श्रमिक के जॉब कार्ड के बीच वर्तनी विसंगति के मुद्दे के अलावा, कई लोगों के लिए आधार को गलत बैंक खाते में मैप करने की समस्या भी है। कई मामलों में, भुगतान लाभार्थियों की पसंद के अलावा किसी अन्य खाते में किया जा सकता है, और वह भी उनकी सहमति के बिना।
सरकार का दावा है कि आधार के उपयोग से वेतन भुगतान में देरी कम हो गई है, लेकिन लिबटेक इंडिया के अनुसार, वेतन भुगतान में देरी मुख्य रूप से अपर्याप्त धन के कारण हुई है। आधार सीडिंग और बैंक खातों के साथ मैपिंग को साफ किए बिना, एबीपीएस को अनिवार्य बनाने से केवल और समस्याएं पैदा होंगी।
केंद्र सरकार को इस निर्णय पर दोबारा विचार करना चाहिए और एबीपीएस लागू करने से पहले दोषपूर्ण सीडिंग और मैपिंग समस्याओं को ठीक करने का कोई तरीका निकालना चाहिए। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने कहा है कि यदि तकनीकी मुद्दे हैं तो वह ग्राम पंचायतों के लिए मामले-दर-मामले के आधार पर एबीपीएस से छूट पर विचार कर सकता है, लेकिन बेहतर होगा कि मंत्रालय समस्या की सीमा का पता लगाने के लिए सामाजिक ऑडिट कराए।
मनरेगा एक महत्वपूर्ण मांग-संचालित कल्याण योजना है जो ग्रामीण गरीबों की मदद करती है और इसका कार्यान्वयन दोषपूर्ण तकनीकी प्रणाली पर निर्भर नहीं होना चाहिए। इधर अपने बयानों के लिए चर्चित केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री गिरिराज सिंह ने कांग्रेस पर करारा पलटवार करते हुए आंकड़ों के साथ आईना दिखाते हुए उन्होंने आरोप लगाया है कि जयराम रमेश जब ग्रामीण विकास मंत्री थे तब मनरेगा में लूट मची थी। यह राजीव गांधी का समय नहीं कि एक रुपये में से 15 पैसा नीचे तक पहुंचे।
मोदी सरकार पारदर्शिता के लिए प्रतिबद्ध है। आंकड़ों के साथ आईना दिखाते हुए उन्होंने आरोप लगाया है कि जयराम रमेश जब ग्रामीण विकास मंत्री थे, तब मनरेगा में लूट मची थी। गिरिराज सिंह ने आरोप लगाया कि कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश के साथ ही अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे भी मनरेगा को लेकर समय-समय पर भ्रम फैलाते रहते हैं।
अभी हाल में ही उन्होंने गलत आंकड़े जारी किए हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि अब ज्यादा मजदूरों को काम दिया जा रहा है। वैसे किसी भी पक्ष में इस बात को याद नहीं किया कि कभी खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी मनरेगा का संसद में मजाक उड़ाया था।
अचानक से कोरोना की वैश्विक महामारी के दौरान यही मनरेगा करोड़ों लोगों की जान बचाने और उन्हें दो वक्त की रोटी दिलाने में काम आयी, इस बात को मोदी सरकार के लोग स्वीकार नहीं करते क्योंकि ऐसा करने पर प्रधानमंत्री मोदी के पूर्व बयान का मजाक बनता है।
कानूनों के बारे में यह बात स्पष्ट होती जा रही है कि केंद्रीय मंत्री इस बारे में ज्यादा मंथन नहीं करते इसी वजह से अधिकारी अपने दिमाग से नये प्रस्ताव लाते हैं, जो पारित होने के बाद उसकी परेशानियों को उजागर करता है। वैसे गिरिराज सिंह यह कहना भूल गये कि जब बंगाल से टीएमसी सांसदों का दल उनसे मिलने उनके कार्यालय आया था तो वे क्यों गायब हो गये थे। तथ्यों की जांच किये बिना और परिणाम क्या होगा, इस पर विचार किये बिना नये नियम लागू करने का क्या हश्र हो सकता है, यह तो सरकार कृषि कानूनों में देख ही चुकी है।