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कर्नाटक से मिलते चुनावी संकेत को क्या समझा जाए

दक्षिण भारत का एकमात्र राज्य, जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी। वैसे यह सरकार भी दूसरे दलों की खामियों का फायदा उठाकर बनायी गयी थी। इस बार के चुनाव में जनता ने इस साजिश को भी शायद नामंजूर कर दिया है। इसलिए मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में, जहां इसी तरह का खेल हुआ था, आगे क्या होगा, यह भाजपा के लिए विचार का प्रश्न है।

वैसे इसके बीच ही नरेंद्र मोदी की छवि को बनाये रखने में मुख्य धारा की मीडिया की कोशिशों पर सवाल उठना लाजिमी है। सीधा सा सवाल है कि अगर जीत का सेहरा बार बार नरेंद्र मोदी के सर पर बांधा जाता है तो हार का पट्टा भी उन्हीं के गले में पहनाया जाएगा। इसके लिए दूसरे किस्म की दलीलों का प्रचार कर मुख्य धारा की मीडिया खुद को और संकट में डाल रही है।

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अगर वर्ष 2024 के चुनाव में भाजपा हार गयी तो इन मुख्यधारा की मीडिया के कई लोगों पर गाज गिरेगी और चीख चीखकर भाजपा का प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रचार करने वाले एंकरों को सड़क पर आना पड़ सकता है। ऐसा इसलिए होगा कि मीडिया मालिक मौका देखकर अपना चाल और चरित्र बदलने में देर नहीं करेंगे।

लेकिन इसके बाद भी कर्नाटक विधानसभा चुनावों में शानदार जीत से गदगद कांग्रेस के उत्साह का विश्लेषण सावधानी के साथ वास्तविकता को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। आमतौर पर ऐसे अनुमान जताए जा रहे थे कि राज्य विधानसभा चुनावों में कांग्रेस दमदार प्रदर्शन कर सकती है।

इसका कारण यह था कि दशकों से कर्नाटक में कोई भी सरकार लगातार दूसरी बार सत्ता में लौटकर नहीं आई है। कांग्रेस ने 1989 के बाद अपने मत प्रतिशत में सर्वाधिक वृद्धि दर्ज कर सबको चौंका दिया। हालांकि, एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कांग्रेस और ना ही दूसरे विपक्षी दल कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणामों को 2024 में होने वाले संसदीय चुनावों के संभावित रुझान के रूप में देखने की जल्दबाजी दिखा सकते हैं।

इसका कारण 2019 के लोकसभा चुनावों से जुड़ा है। उन चुनावों से पहले तीन राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़- के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी। मगर इन चुनावों के कुछ महीने बाद ही हुए लोकसभा चुनावों में इन तीनों राज्यों ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पक्ष में मतदान किया।

राजस्थान में तो कांग्रेस अपना खाता तक नहीं खोल पाई। यद्यपि, भाजपा का प्रदर्शन उम्मीद से अधिक कमजोर रहा है मगर चुनाव विश्लेषकों को पार्टी की हार का विश्लेषण सतर्कता से करना चाहिए। कर्नाटक में भाजपा सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रही थी। यह भी कहा जा रहा है कि कमजोर चुनावी रणनीति के कारण लिंगायत समुदाय उससे दूर हो गया।

इस समुदाय के कई नेता चुनाव से पहले कांग्रेस में शामिल हो गए। मगर लिंगायत समुदाय के नेताओं के कांग्रेस में शामिल होने का असर स्पष्ट तौर पर नहीं दिख रहा है। इसका कारण यह है कि राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार हुबली मध्य-धारवाड़ सीट पर भाजपा के प्रत्याशी से बड़े अंतर से हार गए। शेट्टार छह बार से इस विधानसभा सीट का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। फिर भी चुनाव परिणाम बताते हैं कि लिंगायतों का समर्थन भाजपा को तुलनात्मक तौर पर कम मिला है।

चुनाव नतीजों का विश्लेषण किया जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि सर्वाधिक नुकसान जनता दल सेक्युलर (जेडीएस) को हुआ है। इस बार के चुनावों में जेडीएस का मत प्रतिशत 18 से घटकर केवल 13 प्रतिशत रह गया। जेडीएस के मत प्रतिशत में आई कमी का सीधा लाभ कांग्रेस को मिला जिसका मत प्रतिशत 38 से बढ़कर 43 प्रतिशत हो गया।

हालांकि, भाजपा का मत प्रतिशत लगभग स्थिर रहा है। यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है जिसका गंभीरता से विश्लेषण कांग्रेस सहित सभी दलों के लिए जरूरी हो सकता है। अगर कांग्रेस देश में राष्ट्रीय स्तर पर एक विश्वसनीय विपक्ष की भूमिका निभाना चाहती है तो उसके लिए यह आवश्यक है कि वह कर्नाटक में जीत का श्रेय केंद्रीय नेतृत्व और राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को देने की गलती ना करें।

राहुल की यात्रा का प्रभाव रहा है, यह आंकड़े बताते हैं लेकिन किसी चुनाव में वे कितने महत्वपूर्ण बने, यह बाद के विश्लेषण की बात है। राज्य में डी के शिवकुमार और सिद्धरमैया का स्थानीय दबदबा कांग्रेस की जीत में सहायक रहा है। भाजपा ने राज्य में मुस्लिमों के लिए आरक्षण खत्म करने और मु​स्लिम छात्राओं के हिजाब पहनने का विरोध करने को चुनावी मुद्दा बनाया था।

उसके लिए इन चुनावों से मिले संकेत स्पष्ट हैं। तुलनात्मक रूप से देश के अधिक शिक्षित दक्षिण भाग में ध्रुवीकरण की राजनीति अब काम करने वाली नहीं है। इसलिए लोकसभा चुनाव की तैयारियों में सभी पक्षों को आत्मविश्लेषण करना होगा। आत्म प्रशंसा में सच्चाई से विमुख होना भाजपा और विरोधी दोनों के लिए खतरे की घंटी बन सकती है।

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