दल बदल कानून की धज्जियां उड़ रही है। ऐसा क्यों हो रहा है, यह भारत का हर मतदाता अच्छी तरह समझ रहा है। इसके बाद भी राजनीतिक दलों में विधायक बनने की होड़ के पीछे के कारणों को समझा जाए तो वजह सामने आ जाती है। इसलिए इस बात को सबसे पहले समझ लिया जाए कि आखिर दल बदल कानून को लाने की आवश्यकता क्यों महसूस की गयी थी।
इस बात की चर्चा मेघालय के ताजा घटनाक्रमों की वजह से प्रासंगिक है। वैसे इसके पहले कई अन्य राज्यों में भी हम ऐसा होते हुए देख चुके हैं। इनमें मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र बड़े उदाहरण है। देश में राजनीतिक भ्रष्टाचार और विधायकों की खरीद फरोख्त को रोकने के मकसद से ही यह कानून लाया गया था।
पहले मेघालय के ताजा घटनाक्रम को समझ लें। पूर्वोत्तर के त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड में चुनाव तारीखों का एलान होने के कुछ ही देर पहले मेघालय सरकार में कैबिनेट मंत्री और हिल स्टेट पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी विधायक रेनिकटोन लिंगदोह तोंगखार, टीएमसी विधायक शितलांग पाले, कांग्रेस से सस्पेंड चल रहे पार्टी विधायक मेरिलबोर्न सिएम और पीटी साकमेई, निर्दलीय विधायक लेंबोर मालंगियांग का नाम शामिल है।
विधायकों के इस्तीफे के बाद राज्य में कांग्रेस और हिल स्टेट पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के अब एक भी विधायक नहीं बचे हैं। इस्तीफा देने वाले पांचों विधायक यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी में शामिल हो सकते हैं। यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी मेघालय की कोनराड संगमा सरकार की अहम साझेदार पार्टी है। पार्टी सूत्रों ने यह दावा किया है।
मेघालय विधानसभा में अब विधायकों की संख्या घटकर 42 हो गई है। विधानसभा से अब तक 18 विधायक इस्तीफा दे चुके हैं। विधानसभा सचिव एंड्रयू साइमन ने बताया कि पांचों विधायकों का इस्तीफा मिल गया है। ऐसा जब हो रहा था तो मेघालय का दौरा कर ममता बनर्जी वापस जा चुकी थी।
नेशनल पीपल्स पार्टी के मुखिया कोनराड संगमा के नेतृत्व में छ पार्टियों ने मिलकर मेघालय डेमोक्रेटिक अलायंस बनाया हुआ है। दो विधायकों वाली भाजपा भी इस गठबंधन का हिस्सा है। मेघायल में 50 साल के इतिहास में मेघालय डेमोक्रेटिक अलायंस की सरकार सिर्फ तीसरी सरकार है, जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया है।
भाजपा पहले ही एलान कर चुकी है कि आगामी चुनाव में वह अकेले दम पर चुनाव मैदान में उतरेगी। वहीं कोनराड संगमा के नेतृत्व वाली नेशनल पीपल्स पार्टी ने भी अकेले दम पर चुनाव लड़ने की बात कही है। चुनाव आयोग ने मेघालय में विधानसभा चुनाव की तारीखों का एलान कर दिया है। 60 सदस्यों वाली मेघालय विधानसभा के चुनाव का नोटिफिकेशन 31 जनवरी को जारी होगा और राज्य में 27 फरवरी को मतदान होगा।
चुनाव नतीजों का एलान 2 मार्च को होगा। इसलिए चुनाव से पहले हुए इस खेमाबदल पर यह कानून लागू नहीं होगा लेकिन चुनाव जीतकर आने के बाद जो लोग प्रलोभन में आते हैं, उन्हें रोकने के लिए ही दल बदल कानून लाया गया था। देश की संसद ने इसे 1985 में दसवीं अनुसूची के रूप में संविधान में जोड़ा। इसका उद्देश्य दल बदलने वाले विधायकों को हतोत्साहित कर सरकारों में स्थिरता लाना था। इस 52वें संशोधन अधिनियम, 1985 के माध्यम से संविधान में शामिल किया गया था और यह किसी अन्य राजनीतिक दल में दलबदल के आधार पर निर्वाचित सदस्यों की अयोग्यता के लिये प्रावधान निर्धारित करता है।
हालाँकि यह सांसद/विधायकों के एक समूह को दलबदल के लिये दंड के बिना किसी अन्य राजनीतिक दल में शामिल होने (अर्थात् विलय) की अनुमति देता है। इस प्रकार यह दलबदल करने वाले विधायकों को प्रोत्साहित करने या स्वीकार करने के लिये राजनीतिक दलों को दंडित नहीं करता है।
1985 के अधिनियम के अनुसार, एक राजनीतिक दल के निर्वाचित सदस्यों के एक-तिहाई सदस्यों द्वारा दलबदल को विलय माना जाता था। अब लगता है कि इस शर्त को भी छोड़ दिया जाना चाहिए था ताकि कानून की इस एक कमजोरी की वजह से राजनीतिक दुकानदारी नहीं हो सके। वरना इस कानून के लागू होने के बाद भी क्या कुछ हो रहा है, यह देश के सामने है।
91वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 के अनुसार, दलबदल विरोधी कानून में एक राजनीतिक दल को किसी अन्य राजनीतिक दल में या उसके साथ विलय करने की अनुमति दी गई है, बशर्ते कि उसके कम-से-कम दो-तिहाई सदस्य विलय के पक्ष में हों। दरअसल दलबदल विरोधी कानून के लागू होने के पश्चात् सांसद या विधायक को पार्टी के निर्देशों का पूर्ण रूप से पालन करना होता है।
यह उन्हें किसी भी मुद्दे पर अपने निर्णय के अनुरूप वोट देने की स्वतंत्रता नहीं देता है जिससे प्रतिनिधि लोकतंत्र कमज़ोर होता है। यद्यपि सरकार की स्थिरता एक मुद्दा है इसके लिये पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र को मज़बूत करना होगा जिससे पार्टी विखंडन की घटनाओं को रोका जा सके। इसके बाद भी वास्तव में चुनाव जीतने वाले क्या गुल खिला रहे हैं, यह सबके सामने है। इसलिए इस पर सामाजिक विचार की जरूरत है।