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लोकतंत्र के दो स्तंभों का टकराव आखिर क्यों

उपराष्ट्रपति धनखड़ ने फिर से यह सवाल उठा दिया है कि संसद द्वारा पारित नियमों पर सुप्रीम कोर्ट कैसे फैसला ले सकती है। जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों के बीच अगर किसी बात पर सहमति बनती है तो उस पर अदालत को क्या आपत्ति है। दरअसल काफी समय से न्यायपालिका और विधायिका के बीच जारी टकराव में यह बयान नये आयाम जोड़ रहा है। अजीब स्थिति यह है कि उनके बयान के तुरंत बाद खास तौर पर भाजपा आईटी सेल के लोग इसे प्रचारित करने में जुट गये हैं।

ऐसे लोग इस पर अपनी जानकारी बयान कर रहे हैं जिन्हें शायद कानून, संविधान, न्यायपालिका और विधायिका की कार्यप्रणाली की पूरी जानकारी भी नहीं है। इससे साफ है कि इसका एक मकसद तो राजनीतिक है, जिसके झंडाबरदार अभी देश के कानून किरेण रिजिजू बने हुए हैं। उन्होंने पहले भी कई बार सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम पद्धति पर आपत्ति जतायी है।

दूसरी तरफ भाजपा और केंद्र सरकार की यह भी बड़ी परेशानी है कि उनकी इच्छा के खिलाफ जाकर सुप्रीम कोर्ट उन मामलों की भी सुनवाई कर रहे हैं, जो केंद्र सरकार को असहज स्थिति में डाल देते हैं। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने बुधवार को केशवानंद भारती मामले में उस ऐतिहासिक फैसले पर सवाल उठाया जिसने देश में संविधान के मूलभूत ढांचे का सिद्धांत दिया था।

धनखड़ ने इस ऐतिहासिक फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा कि न्यायपालिका, संसद की संप्रभुता से समझौता नहीं कर सकती। उपराष्ट्रपति ने कहा, यदि संसद के बनाए कानून को किसी भी आधार पर कोई भी संस्था अमान्य करती है तो प्रजातंत्र के लिए ठीक नहीं होगा, बल्कि यह कहना मुश्किल होगा क्या हम लोकतांत्रिक देश हैं।

साथ ही उन्होंने उच्चतम न्यायालय द्वारा 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) अधिनियम को निरस्त किए जाने पर कहा कि दुनिया में ऐसा कहीं नहीं हुआ है। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए संसदीय संप्रभुता और स्वायत्तता सर्वोपरि है और कार्यपालिका या न्यायपालिका को इससे समझौता करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।

धनखड़ राजस्थान विधानसभा में अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारी सम्मेलन के उद्घाटन सत्र को संबोधित कर रहे थे। संवैधानिक संस्थाओं के अपनी सीमाओं में रहकर काम करने की बात करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा, संविधान में संशोधन का संसद का अधिकार क्या किसी और संस्था पर निर्भर कर सकता है। क्या संविधान में कोई नयी संस्था है, जो कहेगी कि संसद ने जो कानून बनाया उस पर हमारी मुहर लगेगी तभी कानून होगा।

उन्होंने कहा, 1973 में एक बहुत गलत परंपरा पड़ी। वर्ष 1973 में केशवानंद भारती के मामले में उच्चतम न्यायालय ने मूलभूत ढांचे का विचार रखा कि संसद, संविधान में संशोधन कर सकती है लेकिन मूलभूत ढांचे में नहीं। न्यायपालिका के प्रति सम्मान प्रकट करने के साथ, कहना चाहूंगा कि मैं इसे नहीं मान सकता। उन्होंने कहा, यदि संसद के बनाए गए कानून को किसी भी आधार पर कोई भी संस्था अमान्य करती है तो यह प्रजातंत्र के लिए ठीक नहीं होगा बल्कि यह कहना मुश्किल होगा क्या हम लोकतांत्रिक देश हैं।

संसद द्वारा पारित एनजेएसी अधिनियम को उच्चतम न्यायालय द्वारा निरस्त किए जाने का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम पारित किया गया। ऐसे कानून को उच्चतम न्यायालय ने निरस्त कर दिया।।।दुनिया में ऐसा कहीं नहीं हुआ है। उपराष्ट्रपति ने कहा, कार्यपालिका को संसद से निकलने वाले संवैधानिक नुस्खे के अनुपालन के लिए नियुक्त किया गया है।

यह एनजेएसी का पालन करने के लिए बाध्य है। न्यायिक फैसले इसे निरस्त नहीं कर सकते। उन्होंने आगे कहा, संसदीय संप्रभुता को कार्यपालिका या न्यायपालिका द्वारा कमजोर करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। उनका बयान न्यायपालिका में उच्च पदों पर नियुक्ति के मुद्दे पर जारी बहस के बीच आया है जिसमें सरकार वर्तमान कॉलेजियम प्रणाली पर सवाल उठा रही है और सर्वोच्च न्यायालय इसका बचाव कर रहा है।

धनखड़ ने कहा कि कोई भी संस्था लोगों के जनादेश को बेअसर करने के लिए शक्ति या अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर सकती है। उन्होंने सम्मेलन में पीठासीन अधिकारियों से कहा कि लोगों की संप्रभुता की रक्षा करना संसद और विधायिकाओं का दायित्व है। इसके तुरंत बाद भाजपा का प्रचार तंत्र इसे लेकर सक्रिय हो गया है।

वैसे इस विवाद के मूल में दोनों के कार्यक्षेत्रों का टकराव है अथवा केंद्र सरकार की एकाधिकार वाली सोच, इस पर विचार करने की जरूरत है। पेगासूस और नोटबंदी सहित कई ऐसे मामलों की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में हुई है, केंद्र सरकार जिनपर विचार के खिलाफ थी। इससे स्पष्ट है कि विवाद की जड़ कहीं और है। साथ ही सुप्रीम कोर्ट में जजों की बहाली में सरकार की इच्छा सर्वोपरि की भावना को भी सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर विवाद को और बढ़ा दिया है। यह निश्चित रूप से एक व्यापक बहस का विषय है और इसका फैसला कमसे कम चौक चौराहों पर ज्ञान बांटने वाले तो नहीं कर सकते हैं।

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