सुप्रीम कोर्ट ने तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा को अपनी बात रखने के लिए सेबी के पास जाने का निर्देश दिया है। यद्यपि उनकी याचिका खारिज कर दी गयी है लेकिन इसमें अदालत ने सेबी को भी इन मुद्दों पर उत्तर देने को कहा है यानी अगर सेबी ने संतोषजनक उत्तर नहीं दिया तो महुआ के लिए शीर्ष अदालत के दरवाजे अब भी खुले हैं।
दरअसल इस पूरे घटनाक्रम को पुरानी घटनाओं से जोड़कर देखने की जरूरत है। महुआ मोइत्रा प्रकरण ने राजनीतिक हलकों और देश के अधिकांश हिस्सों में तूफ़ान मचा दिया है, जिससे हम भारतीयों के बारे में कई सवाल उठते हैं, चाहे वे कितने भी असहज क्यों न हों।
जिस तरह से वर्तमान में हालात हैं, लगभग हर बात निराधार हो सकती है और लोकसभा की आचार समिति कल ही इस मामले की जांच करेगी। हालांकि, कुछ सवाल सामूहिक भारतीय विवेक को परेशान कर सकते हैं: क्या सत्ता में बैठे लोगों को कभी-कभी-यहां तक कि अक्सर-धता से दबाया जाता है?
क्या हमारे लोकतंत्र को सिर्फ़ हल्के में लिया जाता है और उसका सम्मान नहीं किया जाता? दर्शन हीरानंदानी के टेलीविज़न साक्षात्कार के अनुसार, जब उनसे पूछा गया कि क्या उन्होंने सांसद से पूछे जाने वाले सवालों को पोस्ट करने के लिए मोइत्रा के संसद लॉगिन विवरण का इस्तेमाल किया था, तो उन्होंने कहा कि यह निर्णय की त्रुटि थी। बस इतना ही?
उन्होंने कहा कि उनका बयान जो पहले सादे कागज़ पर आया था, उसे बाद में दुबई में भारतीय वाणिज्य दूतावास में नोटरीकृत किया गया था। ऐसा लगता है कि यह बात मोइत्रा को एक कदम पीछे धकेलती है, क्योंकि जब आरोप पहली बार लगे थे, तब उन्होंने आरोप लगाया था कि सरकार ने हीरानंदानी को उस दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने के लिए बंदूक तान दी थी, ऐसा कुछ जो हीरानंदानी ने अपनी इच्छा से भेजे गए साक्षात्कार में कहा था।
मोइत्रा ने अपनी ओर से हीरानंदानी को दुबई से अपने संसद खाते में लॉग इन करने की अनुमति देने से इनकार नहीं किया, बल्कि इसके बजाय उन्होंने यह कहना पसंद किया कि राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र को सबसे पहले उन सभी सांसदों का विवरण जारी करना चाहिए जिनके खातों को उनकी अनुपस्थिति में शोध विद्वानों द्वारा एक्सेस किया गया है, उदाहरण के लिए, सांसद की अनुपस्थिति में।
सवाल यह है कि अगर यह आरोप, चाहे कितना भी अस्पष्ट क्यों न हो, सच है, तो क्या यह अनैतिक नहीं होगा? मोइत्रा ने फिर से उन उपहारों की सूची पर चुप्पी साधी है, जिनके बारे में हीरानंदानी ने दावा किया है कि उन्होंने उन्हें दिया है, यह एक आश्चर्यजनक परिदृश्य है, क्योंकि मोइत्रा संसद में लगभग हर चीज़ के बारे में सरकार पर निशाना साधने के मामले में सबसे मुखर रहे हैं।
मोइत्रा के पक्ष में बोलने वाले विपक्षी दलों के कई सदस्य, बेशक, चुप हो गए हैं और मोइत्रा की पार्टी ने भी खुद को उनसे दूर कर लिया है। अब समय आ गया है कि आचार समिति न केवल मोइत्रा के खिलाफ आरोपों पर गंभीरता से विचार करे, बल्कि अपने अवलोकन के दायरे को भी व्यापक बनाए, ताकि सांसदों के लिए स्पष्ट रूप से अनुचित हर चीज को इसमें शामिल किया जा सके।
लोकतंत्र का सबसे स्वस्थ हिस्सा विपक्ष है जो सरकार के खिलाफ खड़ा होता है, यह जांच और संतुलन की स्वर्णिम प्रणाली है जिसे हम संजोते हैं। हालाँकि, शायद अब समय आ गया है कि कुछ हद तक मर्यादा की सीमाएँ खींची जाएँ। लेकिन उस वक्त महुआ ने अडाणी का नाम लेकर सत्ता शीर्ष को नाराज कर लिया था और उसका नतीजा क्या हुआ, उसे पूरे देश ने देखा है। उसे सदन से निकाल दिया गया।
अब दोबारा चुनाव जीतकर उसी सदन में आने के बाद भी महुआ के तेवर पहले जैसे ही हैं। इसके बीच जो सवाल अनुत्तरित रह गये थे, उनमें यह पहला है कि महुआ का एकाउंट कोई दूसरा संचालित करता है, यह जानकारी किस माध्यम से सदन के भीतर पहुंची थी। उपहार और एक अन्य मित्र की दोस्ती के विवरण भी जाहिर तौर पर सरकारी एजेंसियों के जरिए ही सार्वजनिक किये गये।
ऐसा पहले भी स्वर्गीय रतन टाटा के साथ भी हुआ था जब उनकी फोन पर किसी से बातचीत की रिकार्डिंग सार्वजनिक हो गयी थी। तब भी यह सवाल अनुत्तरित रहा कि आखिर रिकार्डिंग किसने और किस मकसद से की थी। अब तय है कि महुआ मोइत्रा अपने पुराने अपमान का बदला सोच समझकर ले रही हैं और सेबी से सवाल का असली मसला पर्दे के पीछे छिपे उन चेहरों को बेनकाब करना ही है, जो शेयर बाजार का खेल करते हैं। इसमें कौन क्या है, इसकी चर्चा तो बहुत हो चुकी है पर औपचारिक तौर पर सरकार ने इसे स्वीकारा नहीं है। अब अदालती आदेश के बाद क्या होता है, यह देखना रोचक होगा।