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सिर्फ एक विषय पर सर्वदलीय सहमति क्यों

आम तौर पर संसद के दोनों सदनों में आम आदमी हर मुद्दे पर टकराव देखता और सुनता आया है। जनता के हित पर यह टकराव बताया जाता है। पर सवाल तो देश में निरंतर बढ़ती महंगाई और आर्थिक असमानता का है जो अपने वेतन बढ़ाने पर सदन के भीतर सर्वदलीय सहमति कैसे बन जाती है, यह बड़ा सवाल है।

कोई भी विधायकों को उनके उचित वेतन और जिम्मेदारियों के निर्वहन के लिए आवश्यक सुविधाओं से वंचित नहीं करना चाहेगा। लेकिन अधिकांश विधायकों के बारे में जनता की धारणा यह है कि वे उचित वेतन नहीं कमाते हैं और अपने वेतन और वेतन वृद्धि को उचित ठहराने के लिए पर्याप्त काम नहीं करते हैं, जो समय-समय पर लागू की जाती है।

अगर कोई एक मुद्दा है जो केंद्र और राज्य स्तर पर सत्तारूढ़ दल और विपक्ष को एक साथ लाता है, तो वह विधायकों को दिए जाने वाले वेतन, प्रोत्साहन, भत्ते और अन्य सुविधाओं में वृद्धि है। पिछले हफ्ते, कर्नाटक के मंत्रियों और विधायकों ने अपने वेतन और भत्ते में 100 प्रतिशत की भारी बढ़ोतरी की।

जब राज्य वित्तीय संकट का सामना कर रहा है, तो इससे सरकारी खजाने पर 62 करोड़ रुपये का बोझ पड़ेगा। इस सप्ताह केंद्र सरकार द्वारा सांसदों और पूर्व सांसदों के वेतन और पेंशन में 24 प्रतिशत की वृद्धि की घोषणा की गई। भत्ते भी बढ़ाए गए। दिल्ली विधानसभा में विधायकों के वेतन और भत्ते में बढ़ोतरी पर फैसला लेने के लिए पांच सदस्यीय समिति बनाई गई है केवल राशि तय की जानी है।

कोई भी विधायकों को उनके उचित वेतन और उनकी जिम्मेदारियों के निर्वहन के लिए आवश्यक सुविधाओं से वंचित नहीं करना चाहेगा। लेकिन अधिकांश विधायकों के बारे में आम धारणा यह है कि वे अपना वेतन उचित रूप से नहीं कमाते हैं और अपने वेतन और वेतन वृद्धि को उचित ठहराने के लिए पर्याप्त काम नहीं करते हैं, जो समय-समय पर लागू की जाती है।

किसी भी सरकारी कर्मचारी को कम समय में अपने वेतन में 100 प्रतिशत या 24 प्रतिशत की वृद्धि नहीं मिलती है। वेतन संशोधन को इस आलोचना की पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए कि कई विधायक, सुस्त प्रदर्शन करने के साथ-साथ विधायिकाओं की कार्यवाही को बाधित करने वाले भी देखे जाते हैं। विधानमंडल सत्रों की अवधि धीरे-धीरे कम होती जा रही है और जब वे आयोजित भी होते हैं, तो सदन में प्रस्तुत विधेयकों या लोगों से संबंधित मुद्दों पर कोई गंभीर चर्चा शुरू नहीं की जाती है।

विधायकों के वेतन में वृद्धि का निर्णय कर्नाटक विधानसभा में बिना चर्चा के लिया गया। सरकारी या निजी क्षेत्र के कर्मचारियों के मामले के विपरीत, विधायक अपने वेतन के बारे में खुद ही निर्णय लेते हैं।

ये निर्णय विधायकों के होते हैं, विधायकों द्वारा और विधायकों के लिए होते हैं और इसलिए उन्हें पूरी तरह से लोकतांत्रिक माना जाता है।

लेकिन लोग शरारती और असहज सवाल पूछते हैं। सभी विधायक दावा करते हैं कि वे केवल लोगों की सेवा करना चाहते हैं और पैसा कमाना नहीं चाहते।

कर्नाटक में, 10 प्रतिशत विधायक करोड़पति हैं और उनमें से 30 से ज़्यादा की संपत्ति 100 करोड़ रुपये से ज़्यादा है। उनमें से कई ने अपने कार्यकाल के दौरान अपनी संपत्ति में भारी वृद्धि दिखाई है, जिसे समझाना मुश्किल है।

लेकिन विधायक जो सवाल पूछेंगे वह यह है कि जब कीमतें और खर्च बढ़ रहे हैं तो हमें अपने वेतन और वेतन वृद्धि से क्यों चिढ़ है? समझदार पुरुषों और महिलाओं की ओर से यह एक वाजिब सवाल है।

यह मुद्दा भी जनता के लिए विचार का है कि इसी एक मुद्दे पर सर्वदलीय सहमति कैसे बन जाती है जबकि देश के ऐसे निर्वाचित जनप्रतिनिधि सदन के भीतर बार बार महंगाई और गरीबी का जिक्र करते हैं।

आम आदमी का जीवन कितना कठिन होता जा रहा है, यह वे सभी जानते हैं। फिर भी जब जनता की कमाई और आमदनी इतनी नहीं बढ़ रही है तो वे अपनी सुविधाओं का ऐसा विस्तार कैसे ले सकते हैं, इस सवाल को जनता की तरफ से तमाम दलों के सामने रखने का समय आ चुका है।

कोरोना काल ने यह बता दिया है कि सारा ऐश जनता के पैसे से ही चलता है और जनता निरंतर आर्थिक बोझ से दबती जा रही है। ऐसे में जनता के निर्वाचित जनप्रतिनिधि पूरे देश के औसत के मुकाबले काफी अधिक वेतन वृद्धि कैसे ले सकते हैं, यह नैतिक सवाल है। यह अलग बात है कि अब नैतिकता सिर्फ किताबों से लेकर भाषणों में कैद हो चुकी है। इसका उत्तर निरंतर महंगे होते चुनाव से सीधा जुड़ा है। इसकी वजह से ही अब चुनाव और देश का लोकतंत्र भी परोक्ष तौर पर व्यापारिक घरानो के नियंत्रण में चला जा रहा है, इस बात को जनता समझ ले और बिना पैसे के भी प्रत्याशी चुने, यही रास्ता बचता है।

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