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बैठने के लिए खड़ा होना जरूरी है..

( चुनावी व्यंग्य )

प्रकाश सहाय

” बैठते हैं खड़सवार ही मैदान – ए – चुनाव में

वो नेता क्या बैठेगा जो सिर्फ झंडा ढोए..”

 

चुनावी अखाड़े में

” खड़ – बैठन ” की अदा एकदम लल्लन टॉप है ..खड़ा होना बहुत सरल सहज एकदम मासूमियत से भरा …बस गुरुदेव के एक शब्द.. एक नारे को साकार करता हुआ :

” एकला चोलो रे  ”

 

फिर जुझारूपन ..

समाज के सच्ची सेवा का जोश..

समाज को बदल डालने का जुनून

का ठप्पा रेडीमेड लग जाता है इनपर ..

खुद गेंदा फूल की माला पहना..सेल्फी लिया और थोबड़ा पोथी पर चिपका दिया …

इनके समाज प्रेम का

” जज्बा ” लुधियाने के रेडिमेड कपड़ा व्यवसायी सरदार जी की याद दिलाता हैं जिनका विज्ञापन अखबारों में छपता था :

 

” लुट जाऊंगा..बिक जाऊंगा..बर्बाद हो जाऊंगा ..लेकिन सस्ता बेच का जाऊंगा ..चाहे आंधी आए..तूफान भूकंप आए मेरा इरादा नहीं बदलेगा  ”

 

खड़ा होने में सब गुलाबी गुलाबी है ..हींग लगे ना फिटकरी पर रंग चोखा ..

बैठने रंग मटमैला या स्याह हो सकता है …

 

पार्टी वाले उम्मीदवार तो जैक और क्रेन से ऑटोमैटिक मोड में खड़े किए जाते हैं ..लेकिन बैठने वाले तो बिना किसी बैसाखी के खुद खड़े होते हैं देहाती कहावत के साथ :

 

” जो आप करे सो बाप नहीं ”

भांति भांति के चुनावी आसन का प्रयोग होता है खड़ा होने के लिए :

 

कोई सीधा खड़ा होता है सर उठा कर

कोई तिरछा नज़रें बचा कर

कोई एक पैर पर सीना तान कर ..

कोई कमर झुका कर सर झुका कर …

कोई तो जान जोखिम में डाल कर…

 

लेकिन एक बात कॉमन है जो इन सबके बॉडी लैंग्वेज से झलकती टपकती है :

इन्हें खड़ा देख कर ब्रह्मांड में दिव्य ज्योति प्रज्ज्वलित हुई है ..देव – दानव, असुर..गंधर्व..नाग..किन्नर.. नर नारी सभी आनंदित हैं ..अगर चुनावी समर में ये नहीं खड़े होते तो देवराज इंद्र का सिंहासन डोल जाता ..विष्णु जी क्षीर सागर में अपनी निंद्रा से जाग जाते..ब्रह्मा जी अपनी समाधि भंग कर देते और महादेव तांडव नृत्य आरम्भ कर देते…संपूर्ण पृथ्वी पर हाहाकार मच जाता ..सभी पेड़ पौधे..पशु पक्षी अग्नि में जल कर भस्म हो जाते ..

अपने खड़े होकर संपूर्ण सृष्टि को विनाश से बचा लिया …

यह है खड़े होने की महिमा एक झटके में ..2 मिनट्स मैगी की तरह …

 

अपने बलबूते खड़े होने वालों की फौज देख नोटा वाले भी गदगद थे कि बूथ तक जाना अब बेमानी नहीं होगा ..

लेकिन असली पेंच तो

” बैठन कला ”  में है ..

कईसे अईसा बैठो कि सांप भी मर जाय और लाठी भी ना टूटे .?

घी नाली में बह जाय और लोग नमक का हिसाब रखें …

दरअसल खड़े होने पर तो सिर्फ वाह वाह था ..लेकिन बिना तिकड़म जुगत भिड़ाए बैठने पर आह आह की कराह भी निकल सकती है …

 

किसी को रात सपने में दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई ..और शांति से वो बैठ गया …किसी को मनाने धुरंधर चुनावी खेलाड़ी पहुंचे ..अब लिहाज भी कोई चीज है सो बैईठ गए …

किसी को दिवाली की रात उल्लू पर बैठी माता लक्ष्मी के साक्षात् दर्शन हो गए सो हुजूर भी पालथी कर बैईठ गए ..

 

कोई खड़सवार जनता को लुभाने से पहले खुद लोभ और वादे का शिकार बन गए …

 

जो भी हो इस चुनावी अखाड़े में ” खड़-बैठन ”

खेल की अदा बहुत निराली है …लेकिन

बैठने के लिए खड़ा होना जरूरी है …

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