अगस्त 2021 में जब से पाकिस्तान के सुरक्षा बलों की देखरेख में तालिबान ने काबुल पर फिर से कब्ज़ा किया है, तब से पाकिस्तान, ख़ास तौर पर अफ़गानिस्तान के पड़ोसी बलूचिस्तान और ख़ैबर पख़्तूनख़्वा प्रांतों में आतंकवादी हमलों में तेज़ी देखी गई है।
इससे पहले पाकिस्तान अपने यहां आर्थिक मदद के नाम पर तालिबानों के खिलाफ लड़ने वाली अमेरिकी सेना की औपचारिक मदद कर रहा था तो दूसरी तरफ चुपके चुपके तालिबान को भी हथियार देता था।
थोड़ा और पीछे देखें तो अफगानिस्तान में रूसी कब्जा को खत्म करने के लिए अमेरिका ने इसी तालिबान की पूर्व पीढ़ी की मदद की और पाकिस्तान इसमें परोक्ष सहयोगी रहा।
पाकिस्तान ने तालिबान की मदद नहीं की, ऐसा नहीं माना जा सकता क्योंकि अंततः ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान में ही मारा गया। लेकिन इस समय के आते तक पाकिस्तान ने पहले भारत के खिलाफ और बाद में तालिबान के खिलाफ लड़ने के लिए अमेरिकी डॉलरों की खूब मौज की।
अमेरिका ने हाथ तंग कर लिये तो पाकिस्तान आज किस हाल में है, यह सर्वविदित है। फिर भी वहां से रसूखदार लोग हर घड़ी विदेश जाने को बेचैन रहते हैं, इस प्रथा को अब तक नहीं रोका जा सका है। साथ ही यह स्पष्ट है कि विदेश में संपत्ति खरीदने वाले ऐसे नेता और अफसर विरासत में यह धन लेकर नहीं आये थे।
यानी जनता के नाम पर मिला दान इनलोगों ने अपनी जेबों में डाला है। अब बलूचिस्तान की बात करें तो अकेले 2023 में, 650 से ज़्यादा हमले दर्ज किए गए, जिनमें से 23 प्रतिशत बलूचिस्तान में हुए, जो ज़मीन के हिसाब से पाकिस्तान का सबसे बड़ा प्रांत है और अलगाववादी विद्रोह का गढ़ है। लेकिन इस नए सामान्य में भी, सोमवार बलूचिस्तान और पाकिस्तान के लिए सबसे ख़ूनी दिनों में से एक था।
2006 में पाकिस्तानी सेना द्वारा मारे गए बलूच राष्ट्रवादी नेता नवाब अकबर बुगती की 18वीं पुण्यतिथि पर, अलगाववादियों ने पूरे प्रांत में समन्वित हमले किए।
बलूच लिबरेशन आर्मी ने कई मौतों की ज़िम्मेदारी ली है। सुरक्षा अधिकारियों के अनुसार, अलगाववादियों ने बुनियादी ढांचे को नुकसान पहुँचाया और पंजाब से आए प्रवासी मज़दूरों को मार डाला। बलूचिस्तान के अलग-अलग हिस्सों में हुए हमले विद्रोह की बढ़ती पहुँच और क्षमता को दर्शाते हैं। बुगती की पुण्यतिथि पर पहले भी हिंसक घटनाएं हुई हैं, लेकिन 26 अगस्त को पाकिस्तान की सेना और खुफिया सेवाएं चौंक गईं।
ऐतिहासिक रूप से, पाकिस्तान ने बलूच समस्या के प्रति क्रूर, सैन्यवादी दृष्टिकोण अपनाया है। प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता के बावजूद, बलूचिस्तान देश का सबसे गरीब क्षेत्र है।
पाकिस्तान ने ऐतिहासिक रूप से इस प्रांत की उपेक्षा की है। दूसरी ओर, पंजाब राष्ट्रीय राजनीति में प्रभावशाली और आर्थिक रूप से समृद्ध हो गया, जिससे बलूच समुदाय के कुछ वर्गों में पंजाब विरोधी प्रवृत्तियाँ प्रबल हो गईं।
खराब जीवन स्थितियों के साथ-साथ इसका भी अलगाववादियों ने अपने उद्देश्य के लिए समर्थन जुटाने के लिए फायदा उठाया। वे अक्सर स्थानीय अर्थव्यवस्था को कोई मदद दिए बिना संसाधनों को निकालने” के लिए संघीय सरकार पर हमला करते हैं।
बलूच अलगाववादियों ने इस शोषण के एक उदाहरण के रूप में प्रांत से गुजरने वाले चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे का हवाला दिया है और चीनी हितों को निशाना बनाया है।
पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान बलूचिस्तान में नागरिक अधिकार आंदोलनों, जैसे कि बलूच यकजेहती समिति, के साथ जुड़ने में भी विफल रहा है, जिसने इस साल प्रांत में व्यापक मानवाधिकार हनन की ओर संघीय अधिकारियों का ध्यान आकर्षित करने के लिए इस्लामाबाद और बलूच शहरों में कई धरने आयोजित किए।
ऐसे कार्यकर्ताओं को अक्सर पाकिस्तान के दुश्मन” के रूप में चित्रित किया जाता था, जिससे सेना के पास अलगाववादियों के खिलाफ बल प्रयोग करने का एकमात्र विकल्प रह जाता था। लेकिन राज्य की हिंसा ने अलगाववादियों को और मजबूत ही किया है – जैसा कि हालिया हमलों से पता चलता है। अगर पाकिस्तान अपने सबसे बड़े प्रांत में स्थिरता और सुरक्षा को लेकर गंभीर है, तो उसे स्थानीय लोगों की विकास संबंधी चिंताओं को दूर करने, अधिकारों के उल्लंघन को रोकने और बलूचियों के साथ संबंधों को फिर से स्थापित करने के लिए शांतिपूर्ण नागरिक अधिकारों की आवाज़ों से जुड़ने के लिए कदम उठाने चाहिए।
वैसे यह घटनाक्रम भारत के लिए भी एक सबक है, जहां संसाधनों का असमान बंटवारा असंतोष का एक कारण बनता जा रहा है। केंद्र सरकार अब तो करों के बंटवारे में भी भेदभाव कर रही है और सरकार के अपने आंकड़े ही बताते हैं कि भाजपा शासित राज्यों को दूसरे राज्यों के मुकाबले ज्यादा लाभ दिया जा रहा है।
इसलिए भारत को भी बलूचिस्तान ही नहीं बल्कि अस्सी के दशक से उभरे नक्सल आंदोलन की वजहों को समझते हुए अभिभावक की तरह पूरे देश के सभी राज्यों का सही तरीके से ध्यान रखना चाहिए।