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कफन से आगे……….

19वीं सदी के पहले तीन दशकों में मुंशी प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य को एक नया आयाम प्रदान किया। इसी वजह से आज तक उनकी रचनाओँ की चर्चा होती है।

इस दौर के बीच लिखा गया प्रेमचंद का साहित्य इन तीस वर्षों का सामाजिक सांस्कृतिक दस्तावेज है। इसमें उस दौर के समाजसुधार आन्दोलनों, स्वाधीनता संग्राम तथा प्रगतिवादी आन्दोलनों के सामाजिक प्रभावों का स्पष्ट चित्रण है।

उनमें दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छूआछूत, जाति भेद, विधवा विवाह, आधुनिकता, स्त्री-पुरुष समानता, आदि उस दौर की सभी प्रमुख समस्याओं का चित्रण मिलता है।

आम आदमी की भाषा में लेकिन आदर्श आधारित यथार्थवाद उनकी रचनाओं में झलकता है। इसी वजह से दो दशक को प्रेमचंद का युग भी कहा जाता है।

साहित्यकार राजलक्ष्मी सहाय ने उन्हीं की प्रमुख रचनाओं को आधार बनाकर उन कहानियों को वर्तमान के परिपेक्ष्य में नये सिरे से गढ़ने का प्रयास किया है।

हिंदी साहित्य में यह प्रयास अत्यंत साहसिक कदम है और कमसे कम इसी बहाने हमें नये सिरे से मुंशी प्रेमचंद के साहित्य की दोबारा झलक मिल जाती है। इसी कड़ी में प्रमुख रचना कफन से आगे की नई रचना दर्शकों को समर्पित है।

 

राजसक्ष्मी सहाय
राज लक्ष्मी सहाय

झोपडे के बाहर बुझते अलाव के पास घीसु और माधो बैठे थे। बाप बेटा पड़ोस के खेत से आलू उखाड़ लाए थे। अलाव में सेंक कर खा रहे थे। आलू का छिलका छीलते और गर्म गर्म ही मुँह में डाल देते । हलक जले उससे पहले ही पेट में उतार देते.. भूख मिटाने की कवायद थी । झोपड़े के भीतर माधो की पत्नी बुधिया प्रसव पीड़ा झेलती चीत्कार कर रही थी । दिल दहलाने वाली चीख । आसमान बेधने वाली चीख ।

दोनो बुधिया के मरने का इंतजार कर रहे थे । दाई को देने के लिए एक धेला भी न था । सोंठ गुड़ कुछ न था घर में। इससे अच्छा है बुधिया मर जाए । बला टलेगी । और बुधिया मर गई। पेट में बच्चा भी मर गया । चीख थमी माधो अन्दर गया। बुधिया ठंढी हो चुकी थी। बाहर आया जोर जोर से घीसु और माधव रोने लगे आसपास के लोग जमा हो गए। अब लकड़ी और कफन की व्यवस्था करनी थी । दोनों बड़े जमींदार के पास पहुँचे । । बड़ी घृणा सें जमींदार नें फेंककर पांच रूपये दिये। पैसे लेकर पहुंचे सीधे शराब खाने पर।

घीसु सोचता था

जिसे जीते जी चिथड़ा न मिला उसे मरने पर कफन चाहिए।

माधव विचार कर रहा था कफन लगाने से क्या होता है । जल ही जाता है न, गांव वाले पूछेंगे

कफन लाए

कह देंगे रुपये कमर से खिसक गए गांव वाले ऐसे मौके पर छोड़ तो नहीं देंगे। बीस साल पहले घीसु ने ठाकुर की बारात में पूरियाँ तरकारी मिठाइयां भरपेट खाया था। वैसी तृप्ति फिर कभी न मिली । घीसु और माधो ने खूब शराब पी.. साथ में भुनी कलेजी कचौड़ी भी जी भरकर खाया वहीं लुढ़क गए । शाम हो चली । नशे में डोलते घीसु और माधव घर लौटे । कचौड़ी और कलेजी की दावत खाकर उनकी अंतड़ियाँ नृत्य कर रहीं थीं । जीवन में ऐसा तरमाल न मिला था बार-बार दुहाई देते थे बुधिया को जिसकी बदौलत ऐसी दावत नसीब हुई थी मरते मरते खुश कर गई बुधिया।घर से निकले थे बुधिया के लिए कफन लाने जमींदार ने दिये थे पैसे । पैसे दारू और कलेजी में उड़ गए । उन्हें इत्मीनान था । जवाबदेही का खौफ न था । बुधिया मरी भी तो खिला पिलाकर । ऐसे मौके पर गांव वाले थोड़े ही छोड़ देंगे। घर में मिट्टी पड़ी रहे । कोई न कोई तो आएगा ही । घीसु और माधो से किसी को सहानुभूति न थी गांव में दोनो अव्वल आलसी और गैर जिम्मेदार । मगर बुधिया कोल्हू के बैल की तरह पट्टी आंख में बांधे अपने पसीने के तेल से गृहस्थी का दीपक जलाए रखती थी । वह भी चुपचाप घर में व्यवस्था की नीव बुधिया ने ही डाली थी।

टूटी छप्पर वाली माटी से बनी कोठरी में बुधिया मरी पड़ी थी। अब बदन पर मक्खियां भिनभिना रही थीं। वहां दो जानें एक संग मृत थीं। धरती पर छितराई । कोख में कैद शिशु के लिए जननी की चमड़ी का कफन था। मगर मृत जननी के लिए कफन की जुगाड़ न पति कर सका और न ससुर । जमींदार ने जो पैसा फेंककर दिया था वह शराब के नशे का आनंद बनकर बाप बेटे के कलेजे में लहरा था । कोठरि के बाहर कुछ औरतें नाक पर साड़ी रखे बैठी थी । बुधिया की दुर्दशा पर आंसू बहाती थी । बाप बेटे को जी भर कोसती और गालियां देति तनिक भी सहानुभूति न होति थी उन्हें । ऐसा पति किस काम का । दर्द से चीखती घरवाली के लिए एक दाई तक न बुलाया गया । घीसु और माधो वहीं बैठे थे। उनकी देह से मदिरा की गंध फैल रही थी । बुधिया की देह से उठती दुर्गंध से मिलकर ऐसी गंध फैल ऱही थी कि सह पाना मुश्किल हो रहा था । कफन की व्यवस्था के लिए कोई न उठा जाने किसकी प्रतीक्षा थी। आखिर दो औरतें उठीं। जमींदार साहब के दरवाजे पर पहुंची। जमींदार न निकले उनकी पत्नी बाहर आई ।

” ले तो गया था घीसु पांच रूपैया ”

” का कहै मालकिन ”

” दोनों बाप बेटा उस पैसा का दारू पी गए । अभी तक पड़ी है बुधिया ”

जमींदार की पत्नी को बुधिया की याद आई पर्व त्यौहारों में उसके घर का आंगन ऐसा लीपती थी गोबर से कि क्या कहा जाए । एकदम बराबर जैसे उसकी हथेली लोहे की करनी हो ।

दया आ गई । भीतर गई । कुछ पैंसे फेंक कर दिये । साथ में पुरानी सी लाल चुनरी भी । सालों पहले किसी मन्दिर में देवी को चढ़ी चुनरी दी थी  पुजारी नें। इसे ओढा देना बुधिया को सुहागिन गई है। जमींदार की पत्नी की आखों से आंसू टपक गए। दोनों औरतें दुहाई देते लौंटीं। एक बुजुर्ग को पैसे दिये । काका इस पैसा का कफन खरीद लाओ। जल्दी करो अब । घीसु की झोपड़ी से माधो की पत्नी बुधिया की अर्थी निकली। गांव वालों का यही सरोकार गांव की आत्मा होती है। कुछ बूंदें टपक पड़ी अंतरिक्ष से । शायद देवों के अश्रु गिरे थे। ऐसी दर्दनाक मृत्यु पर आकाश भी रोया । एक अजन्मा शिशु संसार में आखें न खोल पाया । लौट गया उसी विराट रूप परमात्मा के पास। कोई भोज न हुआ बुधिया की आत्मा की शान्ति के लिए।

माधो को हिम्मत न थी कि किसी से एक पैसा भी उधार ले। गांव में थू थू हो रही थी। कफन के पैसे से शराब पी ली बाप बेटे ने । घीसु बार बार कहता बुधिया सीधे बैकुण्ठ जाएगी जाते जाते घरवालों को तृप्त कर गई। एक गाय एक कुता और एक कौवा के आगे घीसु ने दुकान से तीन बताशे उधार मांग कर रख दिया । तीनों पऱानी एक ही बार में बताशा गटक गए । हो गया श्राद्ध बुधिया का।

दुकानदार ने कहा उधारी चुकाने की जरूरत नहीं । सोच लेना हमारी तरफ बुधिया भौजी को सरधांजलि है। घीसु को बड़ी राहत हुई। बाप बेटा स्वभाव से ही आलसी काम चोर थे । मजदूरी करने जाते मगर आधा दिन बैठे रहते । एक चौथाई मजदूरी मिलती वह भी गाली और  धिक्कार के साथ । शाम होते सीधे पहुंच जाते चिर परिचित मधुशाला ।

दिन भर की कमाई उड़ाकर घर आते और सो जाते । घीसु अधेड़ अवस्था को पीछे छोड़ रहा था । सर के रूखे बाल खोपड़ी की रूखी चमड़ी को त्याग रहे थे। उसके केंशों को कभी भी तेल नसीब न हुआ था । साफ झलक रहा था कि घीसु को अब मदिरा पी रहा थी। पंजरी की पसलियां अलग अलग गिनी जा सकती थीं । चलनी जैसी गंजी की बाहें कंधे से नीचे लटकी होती थीं ।

उसने माधो की पत्नी को… अपनी बहू को कफन तक न ओढ़ाया था। घीसू जीते जी बगैर कफन के चलती फिरती लाश सा दिखाई देता । बीमार रहने लगा घीसु मजदूरी के लिए खेंतो पर जाना मुमकिन न था । मगर शाम होते उसकी अंतड़ियां मधुशाला को आवाज देने लगती । एक शाम भी नशा किये बिना गुजारना दूभर । माधो से कहा :

” तू जाएगा न माधो ठेके पर ”

” हाँ बापू मगर तुम न जाना … पैर कांपता है तुम्हारा ”

” कहीं गिर पड़ गए तो मुसीबत .”..

” जाऊंगा नहीं .. मगर मेरे लिए थोड़ा सा लाएगा न .. चुक्कड़ भर भी चलेगा न लाएगा तो रात भर नसें रस्सी जैसी ऐंठती रहेगी ”

” कहां से लाउंगा बापू ” अब खेत पर तुम जाते नहीं ”

”  हमको भी गिन गुथकर देता है मजुरी ..काहे हम अपना पैसा से तुमको दिलाते थे न माधो ”

” हमारे पास तो एक पैसा भी फाजिल न होगा ”

” अच्छा तो एक काम करना ”

खाना तो हमलोग बनाते नहीं भात बनाने के लिए एक डेकची छोड़ बाकी सब बर्तन बेच दे .. माड़ भात का जुगाड़ भर रहना चाहिए ”

” क्या कहते हो बापू.. तीन चार तो बर्तन है घर में गिनकर। बेंच दिया तो क्या बचेगा .. वह भी बुधिया अपने संग मायके से लेकर आई थी कुछ निशानी तो रहे उसकी झोपड़े में ”

” बुद्धि तेरी चौपट हो गई माधो ”

माटी के बर्तन में ही खाना बनता रहा था। माटी का हंडी टूटा । नया ले लिया । बुधिया ही ना रही तो बर्तन का क्या। हटा ही दे घर से नहीं याद ही आएगी बेवजह दिल ही जलेगा।

माधो सोचने लगा फिर बोला :

” वैसे बात तो तुम ठीक ही कहते हो बापू

जब से बुधिया गई है,खाना पका ही नहीं । कोई न कोई अपने घर का बासी जूठा हमारे झोपड़े के बाहर फेंक जाता है बचा खुचा दे जाता है ”

” इसी से तो कहता हूं  बर्तन बेंच दे .. ठठेरा कीमत दे देगा… भात के लिए एक हंडी रख लेंगे माड़ भात और नीमक… इससे बेसी चाहिए ही नहीं .”..

एक बोरे में माधो अलमुनियम की एक डेकची जिसकी गर्दन उखड़ी थी लोहे की जंग लगी एक छोटी सी कड़ाही लोहे की जंग से भरी छोलनी अलमुनियम का कलछुल जिसकी डंडी मुड़ी से टेढ़ी सी थी लेकर चल दिया माधो की पत्नी ने कभी इन बर्तनों में खाना बनाया था । राख में मांजकर बिल्कुल चिकने बर्तन रखती थी। वह सुघड़ थी मगर उसकी सुघड़ता को उड़ने का पंख न था उसके पास। उसकी बनाई तरकारी घीसु चाट चाटकर खाता था। पत्थर के एक समतल टुकड़े पर एक छोटे से पत्थर से कूच कूच कर धनिया पता का चटनी पीस लेती थी

बुधिया सात व्यंजन भी फीके थे उसकी बनाई चटनी के सामने ।

माधो की पत्नी की गृहस्थी ठठेरे के पास जा रही थी बिकने को।

” बर्तन के भाव जरा ठीक से लगाना माधो ”

आवाज दी घीसू ने।

” हमको कौन ठग लेगा.. तुम चिन्ता ना ही करो ..

लोहा का पैसा ही थोड़ा ठीक मिला बापू  अलमुनियम तो घिसकर कागज जैसा हो गया था पतला और हल्का “..

” अच्छा जो मिला ठीक ” आज दारू के साथ कलेजी ले आना ठेका के बगल वाले दुकान में बनता है ”

” याद है न, जिस रोज मरी थी बुधिया उसी दिन खाए थे ..उसके बाद कहां नसीब हुआ बैकुण्ठ भोग रही होगी बेचारी…”

माधो के मुंह से लार टपकने लगी सोचता था बापू  ने अच्छा जुगाड़ बताया। शाम हो गयी माधो निकला दारू कलेजी लाने। तेज तेज चलता था कमीज की पाकिट में पैसा था फिर भी हाथ से पाकिट पकड़कर चलता था कहीं पैसा उछलकर पैसा बाहर न गिर जाए। पहुंचते ही भर-गिलास गटक गया बगल से आती भूनी कलेजी की गंध नथुनों में भर ऱही थी। सोचा

कलेजी में पैसा क्यों बर्बाद करें। यहां तो गंध से ही मन खुश हो गया। थोड़ा सा चना चबैना भी चलेगा मगर बापू को तो कलेजी चाहिए। विचार कर रहा था माधो यह बापू भी अजब है। वैध जी ने कहा दिया है कि लीभर बिगड़ गया है। मगर मानता ही नहीं। कलेजी पचा पाएगा क्या बापू के लिए तो चना ही ठीक होगा। थोड़ा सा कलेजी मैं खा लेता हूँ। माधो ने बहुत थोड़ा सा भुना कलेजी खरीदा और खा लिया । फिर चना खरीदा एक मिटटी के गिलास  में घीसु के लिए दारू लेकर चल दिया।

” आ गया रे माधो ..कब से रास्ता देख रहा था ”

” हां बापू गिलास पकड़ो चलने में थोड़ा सा हलक गया और कलेजी नहीं लाए आज बना ही नहीं बापू…आज चना ही फांक लो ”

माधो ने फिर पिया घीसू को साथ। गमछा बिछाकर लुढ़क गया। घीसु को यकीन न होता था कि कलेजी नहीं बना था । सरककर माधो के पास आया । घीसु माधो का मुंह सूंघने लगा कलेजी की महक आ रही थी। झिंझोड़कर माधो को जगाने लगा ।

” झूठठे बेइमान ”

बाप से झूठ बोलता है रे..

घीसु गालियां बक रहा था । उसे दुख भी था माधो ने दगा किया। धोखा दिया बाप को । मन तो करता था माधो का पेट चीरकर कलेजी निकाल ले। नशे में धुत माधो पड़ा रहा। अगली सुबह भात बनाने वाली हंडी जो एकमात्र बर्तन बचा था उसे लेकर घीसु चल दिया । ठठेरा के पास…  ठठेरा छगनलाल दुकान खोलकर बैठा ही था ।

” कयों रे छगन कल माधो को तो अच्छा ठगा तूने .. उतना सारा बर्तन था केवल बीस रूपैया देकर चपत लगा दिया.”..

” क्या कहते हो काका  बीस रूपयै देकर चपत लगा दिया ”

” क्या कहते हो काका.. बीस रूपये नहीं पूरा पैंतीस रूपया दिया था माधो ने बताया नहीं

ऐसा क्या अरे बोहनी भी ना हुई अभी…झूठ बोलकर पाप चढ़ाऊंगा..”

पैंतीस रूपया लेकर गया था माधो। घीसु आग बबूला। लहर गया घीसु।

“अच्छा बता छगन ..इस हंडिया को क्या भाव लेगा तू ”

“तौल कर बताता हूं ” छगन हंडी तौलने लगा ।

” पांच रूपयै मिलेगा ”

” काका.. कुछ बढ़ाकर दो ”

” गुंजाइस नहीं ..घिसा हुआ है ”

घीसु ने पांच रुपईया लिया। सीधा पहुंचा शराब खाने …पुरा ठान लिया था.. दिन भर पियेगा दारू। कलेजी भी खाएगा। शाम तक वहीं डटा रहा घीसु। अंधेरा होते होते तबीयत बिगड़ने लगी। पूरा तीन रूपयै खर्चा कर चुका था। कई बार आखों के आगे अंधेरा सा छाया । उसने ठेका के मालिक को दो रूपया पकड़ाया…

माधो आएगा तो इस पैसा का कफन खरीदकर दे देना। उसे कहना घीसु देकर गया है। गांव में कोई न देगा। देखो बेईमानी मत करना। उसकी जुबान लड़खड़ा रही थी।

माधो को पैसा हरगिज मत देना। वह कलेजी खरीदकर खा जाएगा फिर मक्खी भिन भिन करेगा मेरी देह पर। घीसू को लगा आसमान में उसकी बहू बुधिया खड़ी है। आखें फाड़कर वह आकाश की और देख रहा था। सदा के लिए सो गया था घीसु खूली आंखो के साथ।

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