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देश के मिजाज से भाजपा की बढ़ती चिंता

भाजपा ने काफी सावधानी से अयोध्या में श्रीराम मंदिर को अपनी उपलब्धि बताने का काम किया था। घटनाक्रम यह स्पष्ट कर चुके हैं कि इस मंदिर के उदघाटन का कार्यक्रम भी चुनावों का एलान होने को ध्यान में रखकर किया गया था। अब भी प्रभु श्री राम हिंदुस्तान की बहुसंख्यक आबादी के दिलों में बसते हैं पर चुनावी मिजाज इससे अलग कहानी बयां कर रहा है।

इसे एकतरफा या विपक्ष का कुप्रचार नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह सर्वेक्षण सीएसडीएस ने किया है। इस सर्वेक्षण में देश की सोच कुछ अलग तरीके से निकलकर आ रही है। जिन मुद्दों से भाजपा कन्नी काटना चाहती है, वही बेरोजगारी और महंगाई आम जनता की सोच के केंद्र में है। कट्टर राष्ट्रवाद को भड़काने की चाल के बाद भी अधिसंख्या लोग मानते हैं कि भारत सदियों से एक बहु-धार्मिक समाज रहा है।

विभिन्न धर्मों ने सह-अस्तित्व में रहते हुए सामाजिक क्षेत्र में अपने लिए सांस्कृतिक स्थान बनाए हैं। धार्मिक बहुलवाद ऐतिहासिक दुर्घटनाओं और राजनीतिक संकटों से बचा हुआ है। लेकिन कुछ सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं और देश को ‘हिंदू राष्ट्र’ में बदलने की बढ़ती मांग ने संदेह पैदा कर दिया है। क्या धार्मिक सहिष्णुता का लंबे समय से प्रतीक्षित आदर्श अभी भी लोगों के दिलों के करीब है?

क्या भारत का धर्मनिरपेक्ष सामाजिक ताना-बाना गंभीर खतरे में है? चुनाव पूर्व सर्वेक्षण इन संदेहों को दूर करने में मदद करता है। निष्कर्षों से पता चलता है कि उत्तरदाताओं का भारी बहुमत (79 फीसद) इस विचार का समर्थन करता हुआ दिखाई दिया कि भारत सभी धर्मों का समान रूप से है, न कि केवल हिंदुओं का।

यह एक ऐसा देश बना रहना चाहिए जहां विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोग स्वतंत्र रूप से रह सकें और अपनी आस्था का पालन कर सकें। धार्मिक बहुलवाद के लिए यह उल्लेखनीय समर्थन दर्शाता है कि धार्मिक सहिष्णुता सामाजिक ताने-बाने का एक निर्णायक तत्व बनी हुई है। धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए धार्मिक बहुलवाद पर जोर देना स्वाभाविक है।

लेकिन यह विचार कि भारत सभी धर्मों के अनुयायियों का है, बहुसंख्यक धर्म के सदस्यों का भी मानना है। प्रत्येक 10 में से लगभग आठ हिंदुओं ने कहा कि उन्हें धार्मिक बहुलवाद में विश्वास है। केवल 11 प्रतिशत हिंदुओं ने कहा कि वे सोचते हैं कि भारत हिंदुओं का देश है। अधिक आश्वस्त करने वाली बात यह है कि वृद्धों (73 प्रतिशत) की तुलना में अधिक युवा लोग (81 प्रतिशत) धार्मिक बहुलवाद पर जोर देने के इच्छुक थे।

हालाँकि धार्मिक सहिष्णुता का समर्थन पूरे सामाजिक दायरे में अधिक है, लेकिन शैक्षिक योग्यता से फर्क पड़ता है। 72 फीसद अशिक्षित लोगों की तुलना में, 83 प्रतिशत उच्च शिक्षित लोगों ने कहा कि वे सभी धर्मों की समान स्थिति के पक्ष में थे। हालाँकि सांप्रदायिक तनाव/संघर्ष को आम तौर पर एक शहरी घटना के रूप में देखा जाता है, डेटा एक अलग पैटर्न दिखाता है।

आम धारणा के विपरीत, शहरी परिवेश में रहने वाले लोग ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों की तुलना में धार्मिक बहुलवाद और सहिष्णुता के अधिक समर्थक प्रतीत होते हैं। संक्षेप में, सामाजिक स्तर पर धार्मिक बहुलवाद और समानता के लिए उच्च स्तर का समर्थन एक ओर इशारा करता है। चीजों की जोड़ी। सबसे पहले, उभरती धारणाओं के विपरीत, धार्मिक सह-अस्तित्व और सहिष्णुता का विचार मजबूती से अपना आधार रखता है।

दूसरा, राजनीतिक क्षेत्र में तीव्र धार्मिक विभाजन आवश्यक रूप से व्यापक समाज की स्थिति को प्रतिबिंबित नहीं कर सकता है। इसलिए, किसी को यह देखने की जरूरत है कि धर्म चुनावी संदर्भ में और रोजमर्रा की जिंदगी में अलग-अलग कैसे दिखाई देता है। इससे स्पष्ट है कि दस सालों तक जो नारे भाजपा के पक्ष में चलते रहे, उनका असर इस बार के चुनाव में काफी घट गया है और देश की जनता का बहुमत अपने रोजमर्रा के मुद्दों को अधिक प्राथमिकता दे रहा है।

इसके अलावा मोदी सरकार की दूसरी परेशानी जनता के बीच पनपती वह सोच है कि यह सरकार सिर्फ चंद अमीरों के लिए ही काम करती है। यह एक ऐसा विषय है जो जनता को अंदर ही अंदर परेशान कर रही है और मोदी के लाख प्रयासों के बाद भी यह अधिक शक्तिशाली विषय बन चुका है। मुख्य धारा की मीडिया में भले ही इन मुद्दों पर चर्चा ना होती हो पर सोशल मीडिया के विस्तार की वजह से यह मुद्दा गांव देहात तक चर्चा में आ चुका है।

इसके अलावा किसान आंदोलन का विरोध भी भारी पड़ गया है क्योंकि पंजाब के अनेक ग्रामीण इलाकों में अब भाजपा के लोगों का प्रवेश ही बंद कर दिया गया है। जातिगत जनगणना भी एक ज्वलंत विषय बन गया है। कुल मिलाकर इन मुद्दों को ध्यान में रखकर यह कहा जा सकता है कि यह चुनाव शायद फिर से एकतरफा नहीं होगा।

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