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किधर जा रहा है असली लोकतंत्र

वर्तमान में हर भाजपा विरोधी दल को अपने अंदर की टूट की चिंता सताती है। ऊपर से गैर भाजपा शासित राज्यों में केंद्रीय एजेंसिय़ों की दखल ने भाजपा के शिकार अभियान को और ताकत दी है। सोचने वाली बात यह है कि इससे दरअसल देश का लोकतंत्र किस ओर जा रहा है और क्या हम फिर से एक उग्र राष्ट्रवाद की सोच की वजह से भारत को बांटने की तरफ अग्रसर हो रहे हैं। पूर्व में भी अपनी अपनी सोच को आगे बढ़ाने की वजह से ही प्राचीन भारत के एक नहीं कई टुकड़े हुए थे। वरना सम्राट समुद्र गुप्त का भारत ईराक से लेकर इंडोनेशिया तक फैला हुआ था। ब्रिटिश राज के पहले जब देश पर मुगलों का हमला हुआ उससे पहले ही हर राजा की व्यक्तिगत सोच ने धीरे धीरे भारत को अंदर से बांट रखा था। नतीजा मुगलों के शासन के बाद दो सौ वर्षों का ब्रिटिश राज का इतिहास हमारे सामने है। इसके बाद भी हम हैं कि पुराने घटनाक्रमों से कोई सबक लेने को तैयार नहीं है। झारखंड की बात करें तो जैसे ही चंपई सोरेन ने झारखंड के नए मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली, तीन दर्जन से अधिक विधायकों को उन्हें तोड़ने की कोशिशों का जवाब देने के लिए भगा दिया गया। दल-बदल करने वाले विधायक, जैसा कि अब चलन है, निकटतम प्रतिद्वंद्वी-विरोधी राज्य में चले जाते हैं। लेकिन कोई इसे पत्थर में डालने का जोखिम नहीं उठाएगा। कुछ मामलों में, जैसे कि 2022 में एकनाथ शिंदे के वफादारों के दल के साथ, विधायकों ने छलांग लगाई है। जब वे एक पखवाड़े से भी कम समय में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना से अलग हो गए और महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी गठबंधन सरकार को गिरा दिया, तो शिंदे और उनके लोगों ने मुंबई से सूरत, गुवाहाटी से गोवा और वापस मुंबई के लिए उड़ान भरी। कुछ हज़ार मील और एक विचारधारा दूर, कथित तौर पर चार्टर्ड जेट विमानों पर ले जाया गया। किसी को आश्चर्य होता है कि इंडियन नेशनल लोकदल के देवीलाल ने क्या किया होता, यदि उनके पास ऐसी तकनीक होती तो वे 1982 में हरियाणा के अपने 48 दलबदलू विधायकों को कहां ले गए होते। क्या उसने नई दिल्ली के किसी होटल और सिरसा में भारी सुरक्षा वाले फार्महाउस के अलावा किसी अन्य ठिकाने को चुना होगा, जैसा कि उसने किया? या क्या वह अपनी पसंद पर अड़े रहते और अपने राजनीतिक कद पर ही असली बफर होने का भरोसा करते? 1990 के दशक में, जब हवाई यात्रा कोई आम बात नहीं थी, तब भाजपा के शंकर सिंह वाघेला ने अपने दलबदल करने वाले विधायकों को गुजरात से, बल्कि पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश के खजुराहो में भेजा था। क्या वास्तव में राजनीतिक दलों का क्या दांव पर लगा है और उसे बचाने के लिए दलबदल करने वाले विधायकों को कितनी दूर तक उड़ान भरनी होगी, इसके बीच कोई फॉर्मूला निकाला जा सकता है? कोई भी निश्चित रूप से नहीं कह सकता. देवीलाल बहुमत साबित नहीं कर सके क्योंकि एक विधायक पानी के पाइप में गिर गया। हालाँकि, वाघेला कांग्रेस के समर्थन से गुजरात के मुख्यमंत्री बने। 2022 में, जब शिंदे ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली, तो प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, मुझे विश्वास है कि वह महाराष्ट्र को नई ऊंचाइयों पर ले जाने की दिशा में काम करेंगे। उससे पहले मध्यप्रदेश का हाल भी हमने देखा और अभी झारखंड की घटना से ठीक पहले बिहार में सुशासन बाबू का गुलाटी कुमार बनने का ताजा नमूना हमारे सामने है। अशली सवाल यह है कि सत्ता किसी की भी रहे पर क्या इन घटनाओं से देश का लोकतांत्रिक ढांचा कमजोर नहीं हो रहा है। वर्तमान में स्थायी और डबल इंजन सरकार की दुहाई देने वाले इसके दीर्घकालिन प्रभाव को समझने के लिए तैयार नहीं हैं जबकि उनके पास पहले के भारत का इतिहास और सबक दोनों मौजूद हैं। पांच फरवरी के विश्वासमत के बाद भी झारखंड की गैर भाजपा सरकार सुरक्षित रह पायेगी, इसकी भी कोई गारंटी नहीं है। राजनीति के जंगल में मौजूद बड़े शिकारी हमेशा से कमजोर शिकार की तलाश में रहेंगे। तय है कि किसी भी ऐसे शिकार की कमजोरी पकड़ में आयी तो प्रलोभन अथवा ईडी का भय दिखाकर उन्हें वश में कर लेना कोई कठिन काम नहीं होगा। लेकिन इन सबों के बीच से यह प्रश्न उभर रहा है कि ऐसे में देश की न्यायपालिका की क्या भूमिका होनी चाहिए। कई ऐसे उदाहरण मौजूद हैं, जिसमें ऐसा प्रतीत होता है कि अब भारतीय अदालतें भी सत्ता पक्ष के दबाव में आ रही हैं और फैसले देश हित के खिलाफ जा रहा है।
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