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पत्रकारों का स्रोत जानने की साजिश

सरकार नये नियम लागू कर रही है। इसका असली मकसद किसी भी सरकार विरोधी सूचना के स्रोत का पता लगाना है। इसके पहले भी कई अवसरों पर ऐसा देखा गया है कि सरकारी सोच के विपरित सूचनाओं को प्रसारित करने वाले पत्रकारों को प्रताड़ना और झूठे मुकदमे का सामना करना पड़ा है।

असहमति को स्वीकार करने के लोकतांत्रिक तरीके को बदलने की यह कोशिश दरअसल देश को तानाशाही की तरफ ले जाने का प्रयास है। यह स्पष्ट होता जा रहा है कि स्वायत्त संस्थानों को अपनी मुट्ठी में करने के बाद सरकार की आंखों में चंद पत्रकार और न्यायपालिका ही खटक रही है। इस बीच मीडिया पेशेवरों के डिजिटल उपकरणों को जब्त करने के संबंध में उनके हितों की रक्षा के लिए दिशानिर्देश तैयार करने के लिए केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट का निर्देश समय पर उठाया गया पहला कदम है।

पत्रकारों के खिलाफ हाल की कार्रवाइयों, जिनके लैपटॉप और स्मार्टफोन जब्त किए गए और तलाशी ली गई, ने न केवल व्यापक मीडिया बिरादरी को बल्कि व्हिसल-ब्लोअर और पत्रकारों से बात करने वाले अन्य लोगों को भी इस शर्त पर एक डरावना संदेश भेजा है कि उनकी पहचान उजागर नहीं की जाएगी। यदि किसी पत्रकार के संचार उपकरणों को जब्त किया जा सकता है और आरोपों के आधार पर उनके डेटा की जांच की जा सकती है, तो यह स्रोतों से समझौता करता है और समाचार पेशेवरों की अपना काम करने की क्षमता में बाधा डालता है।

इस तरह, यह प्रेस की स्वतंत्रता पर आघात करता है और पत्रकारों की आजीविका के अधिकार पर भी प्रहार करता है, क्योंकि डिजिटल उपकरण पेशे के महत्वपूर्ण उपकरण बन गए हैं। इसमें दिशानिर्देशों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कानून प्रवर्तन एजेंसियों को पूर्व न्यायिक वारंट के बिना उपकरणों को जब्त करने या तलाशी लेने की अनुमति नहीं है, जिसमें असीमित मछली पकड़ने के अभियान को अधिकृत करने के बजाय स्पष्ट रूप से वह जानकारी दी गई है जो एजेंसी खोजने की उम्मीद करती है।

पत्रकारों को पासकोड या बायोमेट्रिक डेटा प्रदान करने के लिए मजबूर करके खुद को या अपने स्रोतों को दोषी ठहराने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। दिशानिर्देशों में उपकरणों और डेटा की सुरक्षा के लिए प्रोटोकॉल शामिल होने चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह लीक या छेड़छाड़ नहीं किया गया है, या तीसरे पक्ष को नहीं दिया गया है, और जांच के लिए अप्रासंगिक डेटा को समय पर हटा दिया गया है।

तकनीकी हस्तक्षेप एक उपकरण की क्लोनिंग की अनुमति देता है, जिससे पत्रकारों को अपना काम जारी रखने की अनुमति मिलती है और उन्हें अनिर्दिष्ट अवधि के लिए अपने स्वयं के डेटा से वंचित नहीं होना पड़ता है। इसी तरह, जब्ती के समय डिवाइस का रिकॉर्ड बनाना महत्वपूर्ण है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि जांच प्रक्रिया के दौरान उस पर आपत्तिजनक सामग्री नहीं लगाई गई है। न्यायालय ने अतिरिक्त सॉलिसिटर-जनरल को दिए अपने निर्देश में हितों के संतुलन की आवश्यकता का संकेत दिया।

इस प्रकार, दिशानिर्देशों को पारदर्शी तरीके से तैयार किया जाना चाहिए और इसमें सार्वजनिक परामर्श शामिल होना चाहिए। न्यायालय ने इस तथ्य का उल्लेख किया कि गोपनीयता को स्वयं एक मौलिक अधिकार माना गया है, यह दर्शाता है कि यह उन सभी नागरिकों से जुड़ा मुद्दा है, जिनका पेशेवर और व्यक्तिगत जीवन तेजी से एक कमजोर हाथ से पकड़े जाने वाले उपकरण में समाहित हो गया है। मीडिया पेशेवरों के लिए इन दिशानिर्देशों से परे, इन नई डिजिटल वास्तविकताओं को ध्यान में रखते हुए कानून प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा खोज और जब्ती की अनुमति देने वाले कानूनों को अद्यतन करने की आवश्यकता है।

दूसरी तरफ इस पर भी विचार होना चाहिए कि अपराधियों, नक्सलियों और राष्ट्र विरोधी ताकतों के खिलाफ निगरानी के लिए अत्याधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों का इस्तेमाल क्यों गलत तरीके से हो रहा है। इसमें पेगासूस का मामला ज्वलंत उदाहरण है। अपने विरोध में उठने वाले स्वरों को दबाने के लिए जो कुछ किया जाता है, उसे जड़ से मिटाने के लिए ही ऐसे उपकरणों को सरकारें धड़ल्ले से कर रही हैं। इससे अंततः लोकतंत्र के प्रभावित होने के साथ साथ पत्रकारों को सूचना संबंधी स्रोत भी घटते जा रहे हैं।

कोई भी पत्रकारों को वह सारी जानकारी नहीं देना चाहता जो सरकार को नाराज करे अथवा पत्रकार की गिरफ्तारी के बाद उसकी आंच उस तक आये। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों के अलावा इस पर सामाजिक प्रयास की आवश्यकता है कि सरकार ने जिस मकसद से ऐसे उपकरणों का इस्तेमाल प्रारंभ किया है, वह वहीं तक सीमित रहे। दरअसल इसमें देश की अफसरशाही की भी बड़ी भूमिका है। वहां जो महाभारत परोक्ष तौर पर चलता है वह प्रोन्नति से जुड़ा हुआ है। देश के इस नवसामंत वर्ग के बहुमत को दरअसल देश की जनता से कोई लेना देना अब नहीं रहा। ऐसे में वे सिर्फ अपने फायदे की सोचकर ही नियम कानून बना रहे हैं।

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