भारतीय रिजर्व बैंक ने एक बार फिर कर्जदारों को राहत पहुंचाने का प्रयास किया है। उसने संशोधित दिशा-निर्देश जारी कर कहा है कि अगर कोई कर्जदार समय पर किस्त नहीं चुका पाता तो बैंक उससे दंड शुल्क तो वसूल सकते हैं, मगर उस पर चक्रवृद्धि ब्याज नहीं ले सकते। हालांकि यह निर्देश नया नहीं है।
अप्रैल में ही इसका प्रस्ताव आया था और मई में आरबीआइ ने दिशा-निर्देश जारी कर कहा था कि बैंक दंड शुल्क पर चक्रवृद्धि ब्याज न वसूलें। मगर बैंकों ने इस पर अमल नहीं किया, जिसके चलते आरबीआइ को संशोधित दिशा-निर्देश जारी करने पड़े हैं। दरअसल, कोरोना महामारी के बाद बहुत सारे लोगों की आमदनी घट गई है, बहुत सारे लोगों के रोजगार छिन गए, फिर महंगाई पर काबू पाने के लिए आरबीआइ ने रेपो दरों में बढ़ोतरी कर दी, ऐसे में जिन लोगों ने मकान, दुकान, वाहन आदि के लिए कर्ज लिए थे, उन्हें किस्तें चुकाने में दिक्कतें पेश आने लगी।
बहुत सारे लोग आज भी किस्तें चुकाने में विफल हो रहे हैं। ऐसे में बैंकों ने दंड शुल्क को अपने पूंजी निर्माण का जरिया बना लिया। उन्होंने दंड शुल्क पर भी चक्रवृद्धि ब्याज वसूलना शुरू कर दिया। दूसरी तरफ इसी कोरोना काल के दौरान देश के कई बड़े पूंजीपतियों का कर्ज माफ किया गया। मामले का खुलासा होने पर यह दलील दी गयी कि कोई कर्ज माफ नहीं किया गया है बल्कि उन्हें बट्टे खाते में डाला गया है।
इस बहस के बीच ही दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने एक मीडिया मंच से यही काम देश के गरीब और मध्यम वर्ग के कर्जधारकों के लिए भी करने की बात कही थी। तब साफ हो गया था कि देश की सरकार गरीबों और मध्यमवर्गों का पैसा लेकर चंद बड़े पूंजीपतियों के बीच बांटती आयी है। इसे लेकर ग्राहकों ने शिकायत दर्ज कराई और आरबीआइ ने इस पर गंभीरता दिखाते हुए दिशा-निर्देश जारी किए। दरअसल, किस्तें न चुकाने पर दंड शुल्क का प्रावधान इसलिए किया गया था कि ग्राहकों को कर्ज चुकाने को लेकर अनुशासित किया जा सके।
दंड शुल्क को मूलधन में शामिल नहीं किया जा सकता। बैंक किस्त की राशि का एक से दो फीसद तक दंड शुल्क लगा सकते हैं। मगर बैंकों ने इसे अपनी पूंजी निर्माण का माध्यम समझ कर दंड शुल्क पर भी ब्याज जोड़ना शुरू कर दिया। यह कारोबारी नैतिकता के भी खिलाफ है। कोरोना काल में जब लोगों की आमदनी बंद हो गई थी, काम-धंधे रुक गए थे, तब सरकार ने हर तरह के कर्जदारों को राहत देते हुए आदेश जारी किया था कि बंदी के समय में अगर कोई व्यक्ति अपनी किस्तें चुकाने में विफल होता है, तो उससे किसी तरह का दंड न वसूला जाए और उन किस्तों का भुगतान उसे बाद में करने की भी सहूलियत दी जाए। हालांकि यह प्रवृत्ति भी नई नहीं है।
कोरोना काल में जब लोगों की आमदनी बंद हो गई थी, काम-धंधे रुक गए थे, तब सरकार ने हर तरह के कर्जदारों को राहत देते हुए आदेश जारी किया था कि बंदी के समय में अगर कोई व्यक्ति अपनी किस्तें चुकाने में विफल होता है, तो उससे किसी तरह का दंड न वसूला जाए और उन किस्तों का भुगतान उसे बाद में करने की भी सहूलियत दी जाए।
मगर बैंकों ने उन किस्तों को मूलधन में जोड़ कर चक्रवृद्धि ब्याज वसूलना शुरू कर दिया था। तब भी आरबीआइ को दखल देना पड़ा था। यह भी क सच्चाई ही है कि बैंकों का कारोबार ही इस बात पर टिका होता है कि वे ग्राहकों को अधिक से अधिक कर्ज देकर उनसे ब्याज वसूलें। इसलिए बैंक ग्राहकों को कर्ज देने का प्रस्ताव देते रहते हैं।
मगर उस कर्ज के पीछे ब्याज जोड़ने में वे जिस तरह की मनमानी करते देखे जाते हैं, वह बहुत सारे कर्जदारों के लिए समस्या बन जाती है। किस्तें न चुकाने पर दंड शुल्क वसूलना तो नियम के मुताबिक जायज माना जा सकता है, मगर उस पर फिर से ब्याज जोड़ देना उन पर दोहरा दंड बन जाता है। वैसे ही रेपो दरों में बदलाव के बाद बैंकों को थोड़ी रियायत मिली हुई है कि वे अपनी ब्याज दरों का निर्धारण खुद कर सकते हैं। इसलिए वे प्राय: रेपो दर के अनुपात में अपने कर्ज पर ब्याज की दरें कुछ अधिक ही रखते हैं।
इसके बावजूद अगर वे दोहरे दंड की प्रक्रिया अपनाते हैं, तो उसे किसी भी रूप में उचित नहीं कहा जा सकता। इससे पहले कई किस्म के कानूनी संशोधन कर कर्ज वसूलने के लिए बैंकों को अधिक अधिकार दिये गये हैं। अब जब लोकसभा चुनाव का वक्त करीब आ रहा है तो सरकार को गरीबों और मध्यम वर्ग की परेशानियों की याद आने लगी है। उन्हें इस बात का एहसास है कि जनता तमाम सरकारी फैसलों से जनता पर पड़े अतिरिक्त आर्थिक बोझ से नाराज है। इसलिए उन्हें मनाने की कवायद हो रही है।