प्रकृति अपने नियम से चलती है और अनेक प्राकृतिक नियमों को हम पूर्व के अनुभवों से जानते हैं। इसके बाद भी बार बार की गलती और आधुनिक विकास की परिभाषा से प्रकृति को बाहर रखने की सोच ने उत्तर भारत को भीषण परेशानी में डाल रखा है। दिल्ली इसका जीता जागता नमूना है, जहां पहल की तरह यमुना नदी फिर से लाल किला के पास पहुंची थी।
अब आज सुबह हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले के गांवों में बादल फटने से एक व्यक्ति की मौत हो गई और तीन घायल हो गए। यह आपदा रायसन के काईस गांव के पास घटी। कुल्लू के सेऊबाग और काईस में बादल फटने से एक शख्स की मौत हो गई, जबकि 3 लोग घायल बताए जा रहे हैं। मृतक की पहचान बादल शर्मा के रूप में हुई, जो कुल्लू के पाडर तहसील के चांसारी गांव के रहने वाला था।
बादल फटने से 9 गाड़ियों के बहने की भी खबर है। मॉनसून की भारी वर्षा ने यूं तो उत्तर भारत से लेकर पूर्वोत्तर भारत तक काफी नुकसान पहुंचाया है लेकिन सबसे ज्यादा पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रभावित हुआ है। जल प्रलय से हिमाचल के पुल, सड़कें, मकान एक के बाद एक ध्वस्त हो रहे हैं और पहाड़ों से आ रहा मलबा हिमाचल की जो तस्वीर बना रहा है उससे राज्य के लोगों का दर्द काफी बढ़ चुका है। आधुनिक विकास के सारे नमूने प्रकृति के इस जलप्रलय से मिटते जा रहे हैं।
दरक रहे पहाड़ों को देखकर ऐसा लगता है कि अब प्रकृति के कहर को मापना मुश्किल हो चुका है। कुछ दिन पहले तक हिमाचल में पर्यटकों की भीड़ थी लेकिन राज्य में बाढ़, बादल फटने, जल धाराओं में उफान और भूस्खलन में मौतों की खबरों के बाद पर्यटकों ने दूरी बना ली है और फंसे हुए पर्यटक किसी न किसी तरह वापिस लौट रहे हैं।
उत्तराखंड की केदारनाथ त्रासदी के बाद भी भारत ने शायद कोई सबक नहीं सीखा था। सब जानते हैं कि मनुष्य ने विकास के नाम पर प्रकृति पर जो कहर ढाया था उसी का प्रतिशोध प्रकृति ले रही है। अब हालात ऐसे हैं कि जो विज्ञान राज्य के लोगों को वरदान लगता था, आज वही श्राप लगने लगा है।
वर्तमान में इंसान ने औद्योगिकीकरण और भीड़भाड़ से हटकर शांत स्थानों पर आशियाने की तलाश में पहाड़ों व वनों से छेड़छाड़ को अंजाम देना शुरू कर दिया। इस प्रक्रिया में पहाड़ियों को काटना व कुरेदना निरंतर जारी है। प्रतिबंध होने के बावजूद अवैध व अवैज्ञानिक खनन चोरी-छिपे और कहीं-कहीं तो सरेआम जारी है। घने जंगलों तक भी आज के मशीनीकरण ने अपनी पहुंच बना ली है। इसके परिणामस्वरूप पहाड़ियों को समतल बनाने की प्रक्रिया बदस्तूर जारी है।
गड्डों, नालों व प्राकृतिक प्रवाहों से छेड़छाड़ व उन्हें अवरुद्ध करने का खामियाजा व्यक्ति को बरसात के दिनों में सामान्यतः हर वर्ष ही भुगतना पड़ता है। जब प्रकृति प्रवाहों की बाधाओं को हटाने के लिए संघर्ष करती है तो वह इसके कई भयावह निशान मानवीय बस्तियों की क्षति के रूप में छोड़ जाती है।
उन हालात में हमें प्रकृति के प्रति अपने दृष्टिकोण व व्यवहार को बदलने की अकल आती है। दुख यह कि यह विवेक भी कुछ वक्त के लिए ही रहता है और थोड़े ही वक्त में हम सब कुछ भुलाकर उसी पुराने ढर्रे पर आ जाते हैं जहां से सीधे-सीधे प्रकृति के प्रभुत्व को चुनौती मिलती है। पर्यटक स्थलों पर, नदियों और नालों पर होटल बना दिए गए। लोगों ने नदियों को नजरंदाज कर अपनी जमीन से कहीं आगे बढ़कर नदियों के किनारे मकान बना लिए।
लोगों ने सोचा कि नदियां अब उनसे काफी दूर हो गई हैं। जबकि नदियां अपना रास्ता कभी नहीं भूलतीं। जब भी बाढ़ आएगी तो नदियां अपना रास्ता खोज लेती हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार देश में लगभग 12 हजार ऐसी छोटी नदियां हैं जिनके अस्तित्व पर खतरा पैदा हो चुका है। लगभग 6000 नदियां हिमालय से उतर कर आती थीं। अब उनमें से महज 500 का ही अस्तित्व बचा है। नदियों का मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया है।
हिमाचल के मुख्यमंत्री सुक्खू ने केन्द्र से हिमाचल की बाढ़ को राष्ट्रीय आपदा घोषित करने और हर सम्भव मदद का आग्रह किया है। राज्य सरकार इस विकट स्थिति से निपटने के लिए हर सम्भव प्रयास कर रही है मंडी, धर्मशाला, चम्बा, शिमला, कुल्लू, सिरमौर, किन्नौर और लाहौल में स्थितियां बहुत विकट हो चुकी हैं।
भारी वर्षा से नुक्सान तो पंजाब, हरियाणा और उत्तराखंड में भी हुआ है। राज्य सरकारों को इस आपदा से सबक सीखना चाहिए और उन्हें अंधाधुंध शहरीकरण की बजाय हिमालय परिस्थिति को ध्यान में रखकर विकास का मॉडल अपनाना चाहिए। हिमाचल में जहां भी सड़क बनी वहीं बाजार बन गया और जहां बाजार बना वहीं सड़क बन गई। प्रकृति के नियमों के विरुद्ध विकास का खामियाजा इंसान भुगत रहा है। इस सच को स्वीकार कर ही हमें भावी योजनाएं बनाना चाहिए।