देश के कई राज्यों में अब अफसरों की जीभ लपलपा रही है क्योंकि मॉनसून आ चुका है। इसके बाद कई इलाकों में नदियों का जलस्तर बढ़ेगा और बाढ़ की स्थिति बनेगी। फिर बाढ़ नियंत्रण के लिए तात्कालिक उपाय और बाढ़ पीड़ितों के बीच राहत का बंटवारा करने का बजट खर्च होगा।
इस बात को संकलित कोई आंकड़ा नहीं है कि पिछले करीब आठ दशक में देश ने इस बाढ़ नियंत्रण के बदले राहत और तात्कालिक निर्माण पर कितना खर्च किया है। कोरोना के बाद तो यह बात हर भारतीय समझ चुका है कि सरकारी ठाठ भी जनता के पैसे से ही चलते हैं।
इसलिए अब इस दिशा मे नुकसान को क्रमवार तरीके से कम करने की दिशा में कुछ ठोस काम तो होता हुआ दिखना चाहिए। अभी असम में बाढ़ की स्थिति गंभीर है। इसके बाद जब नेपाल से बारिश का पानी नीचे आयेगा तो बिहार का नंबर आयेगा। दूसरी तरफ हिमालय के दूसरे इलाकों से उतरने वाला पानी कई अन्य भारतीय राज्यों को अपनी चपेट में लेगा।
दरअसल बाढ़ नियंत्रण पर स्थायी उपाय करने से हर साल की मौज का यह धंधा बंद हो सकता है। इसलिए भी देश को वास्तव में चलाने वाली अफसरशाही इसे खत्म करना नहीं चाहती क्योंकि हर साल के बजट में कमाई का अवसर मिलता रहता है। इसमें छेद बनाये रखने की बात को इस सरकारी नियम से समझा जा सकता है कि बारिश की भविष्यवाणी मौसम विज्ञान विभाग करता है जबकि बाढ़ की चेतावनी जल आयोग से जारी होती है।
यह सिर्फ फाइलों का मकड़जाल है। जल आयोग ने बाढ़ की स्थिति को स्थायी तौर पर खत्म करने की दिशा में क्या काम किया है अथवा अतिरिक्त जल को सूखाग्रस्त इलाकों तक पहुंचाने की क्या योजना है, इस पर राजनीतिक चर्चा भी नहीं होती है। दरअसल हर साल की बारिश के बाद का बाढ़ कमाई के नये अवसर लेकर आता है।
यह सिर्फ बाढ़ प्रबंधन और बाढ़ राहत की बात नहीं है। बाढ़ पीड़ित इलाकों में सड़कों से लेकर अन्य आधारभूत संरचनाओं के ध्वस्त होने से पिछले भ्रष्टाचार पर पर्दा पड़ जाता है और बारिश खत्म होने के बाद दोबारा उन्हीं पर कमाई और कमिशनखोरी का नया दरवाजा खुल जाता है।
नेपाल की कुछ सबसे बड़ी नदी प्रणालियाँ हिमालय के ग्लेशियरों से निकलती हैं जो फिर बिहार से होते हुए भारत में बहती हैं। मानसून के दौरान, इन नदी प्रणालियों में बाढ़ आ जाती है जिससे बिहार के लिए कई समस्याएँ पैदा होती हैं। यह आवश्यक है कि नेपाल के तराई और उत्तरी बिहार (बड़े पैमाने पर मिथिलांचल क्षेत्र) में बाढ़ से निपटने के लिए केंद्र और बिहार सरकार के बीच प्रक्रिया-संचालित समन्वय हो। लेकिन इस दिशा में कोई स्थायी काम नहीं होता है।
बिहार में बड़े पैमाने पर और बार-बार आने वाली बाढ़ की समस्या के समाधान के लिए दीर्घकालिक उपायों के एक हिस्से के रूप में, नेपाल में एक ऊंचे बांध के निर्माण के लिए एक विस्तृत परियोजना रिपोर्ट तैयार करने के लिए अगस्त 2004 में संयुक्त परियोजना कार्यालय (जेपीओ), विराटनगर की स्थापना की गई थी।
बिहार सरकार के सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद, यह कार्य 17 वर्षों के बाद भी अधूरा है। हम फिलहाल तो सिर्फ नेपाल से ही बेहतर तरीके से बात कर सकते हैं क्योंकि चीन अधिकृत तिब्बत से जो पानी आता है, उसपर चीन से वार्ता का कोई लाभ नहीं है, यह सभी जानते हैं। उत्तराखंड और हिमाचल से प्रवाहित होकर नीचे उतरते जल के बेहतर प्रबंधन का काम किया जा सकता है।
इसके अलावा बरसात के दौरान विभिन्न इलाकों से होते जलप्रवाह को समुद्र में जाने से रोकने के पहले भूमिगत जल भंडार को भरने तथा अतिरिक्त जल को सूखा ग्रस्त इलाकों तक पहुंचाने का काम भी स्थायी उपाय है। पंजाब से राजस्थान तक पानी पहुंचाने का इंदिरा नहर एक मॉडल के तौर पर हमारे सामने है। इस पद्धति पर भी देश की अफसरशाही काम नहीं करना चाहती क्योंकि सत्ता में बैठे शासकों को भी हर साल की बाढ़ की कमाई का हिस्सा मिलता रहे।
देश की जनता को इन तमाम बातों को अब समझने की जरूरत है। अभी असम के लोग परेशान है क्योंकि बाढ़ है। अभी एक सप्ताह पहले लगभग पूरा देश गर्मी और भीषण जलसंकट से परेशान था। इन प्राकृतिक चुनौतियों से निपटने की दिशा में कोई स्थायी काम तो होना चाहिए। गुजरात में नर्मदा डैम का पानी कच्छ के रेगिस्तान तक पहुंचाने के साथ साथ देश के दूसरे हिस्सों में भी स्थायी उपाय तो किया ही जा सकता है।
फर्क सिर्फ इतना होगा कि बजट का बड़ा हिस्सा, जो कमिशनखोरी और चंद लोगों की जेबों में चला जाता है, वह व्यवस्था बंद हो जाएगा। शायद सत्ता और उसे नियंत्रित करने वाले लोग वार्षिक कमाई की इस व्यवस्था को बंद नहीं होने देना चाहते। वरना देश में अब तक जितने बोर वेल खोदे गये हैं उसी से तो देश पानी पानी हो जाना चाहिए था।