अमेरिका में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे का काफी प्रचार हो रहा है। लेकिन दूसरी तरफ मणिपुर की जो परिस्थितियां हैं, उसके प्रति सरकार की चुप्पी और गैर जिम्मेदारी हमें उस भीषण आग की तरफ धकेल रही है जो देश के लिए कतई अच्छा नहीं होने जा रहा है।
वैसे भी गहराई से देखें तो मणिपुर से लेकर कश्मीर, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु तक सामाजिक समरसता गहरे संकट से गुजर रही है। ऐसे हर मामले में तात्कालिक वजह रही है राजनेताओं और राजनीतिक-सामाजिक समूहों द्वारा सामान्य बना दी गई भड़काऊ बयानबाजी।
इन बयानबाजियों में भारतीय नागरिकों पर ही बाहरी और घुसपैठिया होने जैसे आरोप लगाए जा रहे हैं, उन्हें लेकर लव जिहाद जैसे भयभीत करने वाले शब्द इस्तेमाल किए जा रहे हैं।
ऐसी हिंसक भाषा का चुनाव प्रचार अभियानों के दौरान जमकर इस्तेमाल किया जाता है और सोशल मीडिया इसे और अधिक प्रचारित प्रसारित करने का काम करता है। ऐसे अपुष्ट दावे और आरोप अंतत: नागरिक समाज में विभाजन पैदा करते हैं।
मणिपुर में यही हो रहा है जहां घाटी में रहने वाले मैतेई, जिनमें ज्यादातर हिंदू हैं तथा पहाड़ी इलाकों में रहने वाले कुकी जनजाति के लोग जिनमें से ज्यादातर ईसाई हैं, के बीच का तनाव अनियंत्रित हिंसा के चक्र में तब्दील हो गया है।
इस संकट की शुरुआत 3 मई को हुई जब एक जनजातीय छात्र संगठन ने मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध आयोजित किया। अज्ञात तत्त्वों ने इस प्रदर्शन पर हमला किया और जनजातीय लोगों की संपत्तियों को नुकसान पहुंचाया।
तब से गृहमंत्री और केंद्रीय सुरक्षा बलों का ध्यान राज्य के हालात की ओर आकृष्ट किया गया लेकिन इसका बहुत अधिक असर नहीं हुआ। इसके बजाय हर समूह ने अपने-अपने समूह बना लिए जिन्होंने अपनी मर्जी से विरोधियों और सुरक्षा बलों पर हमले करने शुरू कर दिए। हालांकि इस प्रकरण में मैतेई और कुकी समुदायों को हिंसा के इस पूरे प्रकरण में निर्दोष नहीं ठहराया जा सकता।
तथ्य यही है कि कुकी को राजनीतिक संदर्भों में बाहरी और मादक पदार्थों के तस्कर कहकर बुलाए जाने ने भी उनके खिलाफ हिंसा में पर्याप्त योगदान किया। ये आरोप पूरी तरह गलत हैं। कुकी समुदाय पर बाहरी होने का ठप्पा दरअसल इस इलाके के जटिल इतिहास का सामान्यीकरण है जहां मनमाने औपनिवेशिक निर्णयों ने स्थानीय कुकी आबादी को भारत के मणिपुर और वर्तमान म्यांमार में बांट दिया। 19वीं सदी में ये दोनों इलाके ब्रिटिश उपनिवेश थे।
जहां तक अफीम की तस्करी की बात है तो आधिकारिक पुलिस रिकॉर्ड दिखाते हैं कि इस अपराध में दोनों समूह समान रूप से शामिल हैं और इसने इन तमाम वर्षों के दौरान मणिपुर को अस्थिर किए रखा है।
यह स्पष्ट नहीं है कि मौजूदा राज्य सरकार जो कुकी समुदाय पर मैतेई समुदाय को जमकर तरजीह देती रही है और उपरोक्त बांटने वाली भाषा को बढ़ावा देती रही है, वह भला शांति व्यवस्था कैसे कायम करेगी जबकि उसे लेकर भारी अविश्वास है। इसके केंद्र में खुद मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह ही हैं। दोनों पक्ष किसी भी राजनीतिक हल को स्वीकार करते नहीं दिखते।
यानी मणिपुर एक ऐसा राज्य बन गया है जहां जहरीली बयानबाजी ने सामाजिक तनाव को खतरनाक आक्रामकता में बदल दिया। उत्तराखंड में भी ऐसा ही हो रहा है जहां आबादी में 14 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाले मुस्लिमों के खिलाफ माहौल बना है।
इसने तब जोर पकड़ा जब राज्य सरकार ने एक कठोर धर्मांतरणरोधी कानून पारित किया और मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने मजार जिहाद जैसे भड़काऊ जुमले का इस्तेमाल किया। दरअसल वह वन भूमि पर कथित अवैध कब्रों के निर्माण की बात कर रहे थे। इस अशांति का असर यह हुआ कि उत्तरकाशी जैसे छोटे से कस्बे में मुस्लिम दुकानदार उस समय अपनी दुकानें खाली करने पर विवश हो गए जब दो आदमियों ने एक अल्पवयस्क हिंदू लड़की का अपहरण करने का प्रयास किया।
विश्व हिंदू परिषद के नेताओं ने कहा कि मुस्लिम कबाड़ व्यापारी और आइसक्रीम बेचने वाले हिंदू लड़कियों के लिए खतरा हैं। राज्य में सत्ताधारी दल के एक नेता को अपनी बेटी की शादी रद्द करनी पड़ी जो एक मुस्लिम युवक से हो रही थी। पश्चिम बंगाल में सांप्रदायिक तनाव इस हद तक बढ़ गया है कि ऐसे सांस्कृतिक अवसर सांप्रदायिक दंगों की वजह बन रहे हैं जिन पर पहले कोई ध्यान तक नहीं देता था।
कश्मीर में मुस्लिमों को आतंकी बताए जाने की घटनाओं ने हिंदू पंडितों पर हमलों की घटना में इजाफा किया। ऐसी बांटने वाली बातें वोट दिलाने में उपयोगी होती होंगी लेकिन जब यह जानबूझकर हिंदुओं को हिंदुओं के खिलाफ खड़ा करती है तो इससे हमारे सपनों के भारत की तस्वीर को बढ़ावा नहीं मिलता। मणिपुर की हिंसा पर भारतीय सेना का अनुभव कुछ ऐसे ही संकेत देते हैं और वे देश के लिए शुभ संकेत तो कतई नहीं हैं। मोदी की चुप्पी भी इस आग में घी डालने का काम कर रही है।