संसद के नये भवन के उदघाटन पर राजनीति तेज है। इसके बीच ही वहां प्राचीन संस्कृति का हवाला देते हुए सेंगोल स्थापित किये जाने की सूचना सार्वजनिक हुई है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बताया कि सेंगोल (राजदंड) को स्थापित किया जाएगा। इसका अर्थ होता है संपदा से संपन्न।
जिस दिन राष्ट्र को समर्पित होगी, उसी दिन तमिलनाडु से आए विद्वानों द्वारा सेंगोल पीएम को दी जाएगी फिर संसद में इसे स्थायी तौर पर लोकसभा अध्यक्ष के बगल में स्थापित की जाएगी। श्री शाह ने बताया कि सेंगोल इससे पहले इलाहाबाद के संग्रहालय में रखा था।
आजादी के समय जब पंडित नेहरू से पूछा गया कि सत्ता हस्तांतरण के दौरान क्या आयोजन होना चाहिए? नेहरूजी ने अपने सहयोगियों से चर्चा की। सी गोपालाचारी से पूछा गया। सेंगोल की प्रक्रिया को चिन्हित किया गया। पंडित नेहरू ने पवित्र सेंगोल को तमिलनाडु से मंगवा कर अंग्रेजों से सेंगोल को स्वीकार किया। इसका तात्पर्य था पारंपरिक तरीके से ये सत्ता हमारे पास आई है।
सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि सेंगोल जिसको प्राप्त होता है उससे निष्पक्ष और न्यायपूर्ण शासन की उम्मीद की जाती है। यह चोला साम्राज्य से जुड़ा हुआ है। तमिलनाडु के पुजारियों द्वारा इसमें धार्मिक अनुष्ठान किया गया। आजादी के समय जब इसे नेहरू जी को सौंपा गया था, तब इसकी चर्चा हुई थी। अब इसके इतिहास को समझ लें। सेंगोल तमिल भाषा के शब्द सेम्मई से निकला हुआ शब्द है।
इसका अर्थ होता है धर्म, सच्चाई और निष्ठा। 14 अगस्त 1947 को जवाहरलाल नेहरू ने तमिलनाडु की जनता से सेंगोल को स्वीकार किया था। केंद्रीय गृह मंत्री ने कहा, 1947 के बाद उसे भुला दिया गया। फिर 1971 में तमिल विद्वान ने इसका जिक्र किया और किताब में इसका जिक्र किया।
96 साल के वह तमिल विद्वान भी 28 मई को संसद के उद्घाटन के वक्त मौजूद रहेंगे, वे 1947 में नेहरू को सेंगोल सौंपे जाने के वक्त मौजूद थे। सेंगोल राजदंड भारतीय सम्राट की शक्ति और अधिकार का प्रतीक था। यह सोने या चांदी से बना था, और इसे अक्सर कीमती पत्थरों से सजाया जाता था।
सेंगोल राजदंड औपचारिक अवसरों पर सम्राट द्वारा ले जाया जाता था, और इसका उपयोग उनके अधिकार को दर्शाने के लिए किया जाता था। राजदंड का पहला ज्ञात उपयोग मौर्य साम्राज्य (322-185 ईसा पूर्व) द्वारा किया गया था। मौर्य सम्राटों ने अपने विशाल साम्राज्य पर अपने अधिकार को दर्शाने के लिए सेंगोल राजदंड का इस्तेमाल किया।
गुप्त साम्राज्य (320-550 ईस्वी), चोल साम्राज्य (907-1310 ईस्वी) और विजयनगर साम्राज्य (1336-1646 ईस्वी) द्वारा सेंगोल राजदंड का भी इस्तेमाल किया गया था। सेंगोल राजदंड आखिरी बार मुगल साम्राज्य (1526-1857) द्वारा इस्तेमाल किया गया था।
मुगल बादशाहों ने अपने विशाल साम्राज्य पर अपने अधिकार को दर्शाने के लिए सेंगोल राजदंड का इस्तेमाल किया। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (1600-1858) द्वारा भारत पर अपने अधिकार के प्रतीक के रूप में सेंगोल राजदंड का भी उपयोग किया गया था।
1947 में भारतीय स्वतंत्रता के बाद, भारत सरकार द्वारा सेंगोल राजदंड का उपयोग नहीं किया गया था। हालांकि, सेंगोल राजदंड अभी भी भारतीय सम्राट की शक्ति और अधिकार का प्रतीक है। यह भारत के समृद्ध इतिहास की याद दिलाता है, और यह देश की आजादी का प्रतीक है। इलाहाबाद संग्रहालय में दुर्लभ कला संग्रह के तौर पर रखी गोल्डन स्टिक को अब तक नेहरू की सोने की छड़ी के रूप में जाना जाता रहा है।
हाल में ही चेन्नई की एक गोल्डन कोटिंग कंपनी ने इलाहाबाद संग्रहालय प्रशासन को इस स्टिक के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी थी। कंपनी का दावा है कि यह कोई स्टिक नहीं बल्कि सत्ता हस्तांतरण का दंड है। गोल्डन ज्वेलरी कंपनी वीबीजे (वूम्मीदी बंगारू ज्वैलर्स) का दावा है कि 1947 में उनके वंशजों ने ही इस राजदंड को अंतिम वायसराय के आग्रह पर बनाया था।
लेकिन जिस तरीके से इसका प्रचार किया गया है, उससे यह सवाल उठकर आता है कि सिर्फ ऐतिहासिक विरासत को दर्शाने के लिए किसी राजतंत्र के प्रतीक का प्रचार और स्थापना क्यों आवश्यक है। क्या वाकई भारत अब भी अंदर ही अंदर राजतंत्र की सोच को संभालकर चल रहा है अथवा इस प्रतीक के जरिए भी राजतंत्र के नाम पर फिर से अधिनायकवाद की स्थापना की कोशिश की जा रही है।
हाल के कई घटनाक्रम ऐसा दर्शाते हैं कि वर्तमान सरकार को लोकतांत्रिक मूल्यों की बहुत अधिक चिंता नहीं है। इसी तरह वह संविधान और कानून की परवाह भी ज्यादा नहीं करता। इसके लिए दिल्ली का अध्यादेश और महिला पहलवानों का आंदोलन सबूत है। तो क्या हम परोक्ष तौर पर किसी ऐतिहासिक वस्तु को प्रदर्शित कर फिर से राजतंत्र की स्थापना की दिशा में किये जा रहे नये प्रयास के तौर पर इसे नहीं देख सकते हैं। इसके बिना भी भारतीय लोकतंत्र चल सकता है फिर राजतंत्र के प्रतीक को महिमामंडित करने की आखिर जरूरत क्या है।