यह बात आम चर्चा में तो नहीं आयी लेकिन अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसका महत्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि जलवायु परिवर्तन के असर को भारतवर्ष भी अच्छी तरह महसूस कर रहा है।
रेगिस्तानी इलाकों में बाढ़, आम बारिश वाले इलाकों में अल्पवर्षा और सर्दियों का मौसम ठीक से प्रारंभ होने के पहले ही कई इलाकों में बर्फवारी। यह सब दरअसल आने वाले खतरे के पूर्व संकेत ही है।
इसके बीच ही खबर आयी है कि ग्रेट निकोबार में जंगल काटे जा रहे हैं और मुआवजे के तौर पर हरियाणा में जंगल बनाये जायेंगे और संरक्षित किये जायेंगे। यह अपने आप में अजीब फैसला है क्योंकि दोनों स्थानों के बीच की भौगोलिक दूरी कम से कम 2,400 किमी है, बल्कि दोनों स्थान जो एक ही योजना पर आगे-पीछे होने वाले हैं, उनमें एक बात समान होगी – ग्रेट निकोबार का उष्णकटिबंधीय वर्षावन कहां है, और अरावली की सूखी पहाड़ियों की हरियाली कहाँ।
लेकिन आज के भारत में ये सब होने वाला है। दो साल पहले, केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने ग्रेट निकोबार हवाई अड्डे, पावर प्लांट और टाउनशिप सहित एक प्रमुख परियोजना के कार्यान्वयन को मंजूरी दी थी।
देखा जा सकता है कि जहां ये सब होगा वहां की 80 फीसदी जमीन घने जंगल से ढकी है, करीब 10 लाख पेड़ काटने पड़ेंगे। इन सभी मामलों में भारतीय कानून के अनुसार ‘गैर-वन भूमि’ में ‘प्रतिपूरक वनरोपण’ अनिवार्य है, इसके लिए हरियाणा के पांच जिलों को स्थल के रूप में चुना गया है, हरियाणा सरकार ने इसके लिए भूमि चिह्नित करने का काम भी शुरू कर दिया है।
सरकारी सोच और वास्तविक उपयोगिता के बीच अक्सर अंतर होता है। इस मामले में भी ये आंखों के सामने उभर रहा है। पर्यावरणविदों और वन संरक्षण विशेषज्ञों ने हमेशा कहा है कि ‘प्रतिपूरक वनीकरण’ से उतनी बारिश नहीं होती जितनी सुनने में आती है।
केंद्र ने इस मामले में हरियाणा को चुना है क्योंकि यहां देश में सबसे कम वन क्षेत्र है, जो कुल क्षेत्रफल का केवल 3.6 प्रतिशत है। पिछले कुछ दशकों में विभिन्न निर्माण कार्यों और खुदाई के कारण अरावली के कई हिस्से मिट गए हैं।
ऐसे में अगर निकोबार का दाम हरियाणा में मिले तो आम और छिलका दोनों हाथ में: निकोबार को मुआवजा, हरियाणा को भी हरा! लेकिन पर्यावरण वैज्ञानिकों के अनुसार, मुआवज़ा केवल वृक्षारोपण या वन संरक्षण के बारे में नहीं है। वनों का अर्थ जैव विविधता भी है – निकोबार की भौगोलिक स्थिति इसे अद्वितीय जैव विविधता का खजाना बनाती है, वनों के विनाश से स्थायी क्षति होगी।
पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र को यह क्षति वस्तुतः अपूरणीय है, और इसे हरियाणा में सरकारी सद्भावना और पहल से उचित नहीं ठहराया जा सकेगा।
अगर कोई अच्छाई और बुराई है, तो वह यह है कि हरियाणा जैसे भौगोलिक रूप से ‘भूमि से घिरे’ राज्य में वनीकरण और हरित संरक्षण का जरूरी सवाल इस फॉर्मूले से सामने आता है। इस पहलू पर भी कई सवाल हैं।
अरावली की सूखी मिट्टी को ‘सृजित’ करने, कम वर्षा वाले क्षेत्रों में हरियाली के ‘संरक्षण’ के लिए सबसे पहले एक सुविचारित, सुनियोजित भूमि एवं जल संरक्षण योजना की आवश्यकता है।
इस कार्य के लिए पर्याप्त कर्मचारियों, बुनियादी ढांचे की आवश्यकता होती है और यह दीर्घकालिक है। क्या हरियाणा सरकार यह सब कर पाएगी और कितना कर पाएगी, ये प्रश्न अप्रासंगिक नहीं हैं; क्योंकि राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, हरियाणा में 2005 में जितना वन क्षेत्र था, 2021 में भी उतना ही है।
निकोबार ट्रांसलोकेशन प्रोजेक्ट में, हरियाणा को अब बहुत काम करना है, जिम्मेदारियां भी – मिट्टी की गुणवत्ता का आकलन, उर्वरता बढ़ाने के कदम और जल संरक्षण के बुनियादी ढांचे को तुरंत पूरा करना है।
विकास की जो कीमत निकोबार को चुकानी पड़ती है, अगर हरियाणा हरा-भरा होगा तो कम से कम उसे कुछ मलाल तो होगा। फिर भी पर्यावरण और भविष्य की चिंता रखने वालों को इस किस्म के सरकारी फैसलों से चिंतित होना ही चाहिए।
पर्यावरण जैसे संवेदनशील मुद्दों पर हमें अधिक ध्यान इसलिए भी देना चाहिए क्योंकि प्रकृति पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता है और अफ्रीकी देश अभी जिन परेशानियों को झेल रहे हैं, वे हमारे लिए सबक है।
अब सरकार में बैठे विशेषज्ञों से यह सवाल तो किया ही जाना चाहिए कि निकोबर के जंगल काटने से वहां के पर्यावरण को जो नुकसान हो रहा है, उसकी भरपाई स्थानीय स्तर पर कैसे होगी या फिर यह भी पूछना चाहिए कि हरियाणा में जंगल लगाने से निकोबर को प्राकृतिक तौर पर कौन सा लाभ होगा।
यह सवाल इसलिए भी प्रासंगिक है क्योंकि देश भर के वन विभाग के अफसर जो जंगल लगाते जा रहे हैं, उसके बाद भी पूरे देश का फॉरेस्ट कवर यानी वन आच्छादन अब तक बेहतर स्थिति में क्यों नहीं पहुंच पाया है।