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योगी आदित्यनाथ को हटाना आसान नहीं होगा

नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा में सभी कद्दावर नेताओं को उनकी औकात बताने का खेल तो प्रारंभ से ही चल रहा था। दरअसल जिस किसी को भी मोदी के मुकाबले खड़े होने लायक समझा गया, उसे बड़ी चालाकी से रास्ते से हटा दिया गया। इस कड़ी में पहला नाम तो लालकृष्ण आडवाणी का रहा। श्री आडवाणी के विरोध के बाद भी तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाकर चुनाव अभियान की नींव रखी थी। बाद में क्रमवार तरीके से अन्य बड़े नेताओँ को एक एक कर किनारे लगाया गया। जो अपनी निजी ताकत की बदौलत टिके रहे, वे भी अब भाजपा की मुख्य की राजनीति का हिस्सा नहीं रहे। मसलन एक अन्य पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीन गडकरी है। दूसरी तरफ राजस्थान में भी वसुंधरा राजे सिंधिया की हैसियत कम कर दी गयी। मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह का विकल्प अब वहां मुख्यमंत्री है। इसलिए इसे मोदी और अमित शाह की भाजपा का नया तरीका माना जाता है। अब पहली बार यह परेशानी है कि अमित शाह की टक्कर योगी आदित्यनाथ से हो गयी है। दोनों के बीच बेहतर रिश्ता नहीं है, यह पहले से पता था पर अब यह बात खुलकर सामने आ गयी है। इसकी एक खास वजह भी है। भारतीय राजनीति की कहावत है कि दिल्ली की गद्दी तक पहुंचने का रास्ता, या यूं कहें कि उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है। इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि जब उत्तर प्रदेश छींकता है, तो दिल्ली को सर्दी लग जाती है। आम चुनाव में उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की खराब चुनावी स्थिति – उसने 80 में से 33 सीटें जीतीं – ने भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को बेचैन कर दिया था। लेकिन अब, ऐसी फुसफुसाहटें हैं कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ सुनियोजित पटकथा के तहत चाकू निकाले जा रहे हैं, जिसे नई दिल्ली की मंजूरी मिल गई है।

उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने यह सुझाव देकर युद्ध का बिगुल फूंक दिया है कि चुनाव के नतीजे भाजपा के उन कार्यकर्ताओं के गुस्से को दर्शाते हैं, जिन्हें मुख्यमंत्री की एकतरफा कार्यप्रणाली ने दरकिनार कर दिया था। इसके साथ ही अन्य मोर्चे भी खुल गए हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सहयोगी और नरेंद्र मोदी सरकार में कनिष्ठ मंत्री अनुप्रिया पटेल ने श्री आदित्यनाथ को दोषी ठहराया है – वे क्षत्रिय हैं – गैर-यादव, पिछड़े समुदायों द्वारा चुनावों में भाजपा से किनारा करने के लिए, जबकि संजय निषाद ने गरीबों के खिलाफ बुलडोजर चलाने के उनके फैसले के लिए श्री आदित्यनाथ की आलोचना की है। श्री आदित्यनाथ की प्रतिक्रिया से भी यह स्पष्ट है कि यह खेल चल रहा है: मुख्यमंत्री ने महत्वपूर्ण राज्य में अलोकप्रिय उम्मीदवारों के चयन के लिए भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को परोक्ष रूप से दोषी ठहराया था। इन राजनीतिक चर्चाओं के पीछे असली मुद्दा शायद व्यक्तिगत प्रतिद्वंद्विता है: कहा जाता है कि श्री मोदी के उत्तराधिकारी के रूप में श्री आदित्यनाथ के दावे से केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह नाराज़ हैं। इन तीखी बहसों की छाया – कांग्रेस गुटबाजी से ग्रस्त एकमात्र पार्टी नहीं है – यूपी में 10 विधानसभा सीटों के लिए होने वाले उपचुनावों पर पड़ सकती है। इन चुनावों को श्री आदित्यनाथ के लिए लिटमस टेस्ट के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन जो कुछ हो रहा है, उससे संघ परिवार की निजी लड़ाइयों से कहीं ज़्यादा कुछ पता चलता है। इस संघर्ष में जातिगत कटुता की भूमिका है: मुख्यमंत्री और उनके आलोचक अलग-अलग प्रतिस्पर्धी जाति समूहों से हैं।यह, पिछड़े समुदायों द्वारा झेले जा रहे आर्थिक नुकसान के साथ-साथ, भविष्य में भाजपा के सामाजिक इंजीनियरिंग प्रयासों को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है। इसका मतलब यह होगा कि अलग-अलग जातियों और समुदायों को मिलाकर एक मज़बूत चुनावी गठबंधन बनाने में भाजपा के लिए अप्रत्याशित बाधाएँ खड़ी हो सकती हैं।

इसमें याद रखना होगा कि योगी ही यूपी के मुखयमंत्री पद की पहली प्राथमिकता नहीं थे। भाजपा के लोग जानते हैं कि दरअसल मनोज सिन्हा को श्री मोदी मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे। योगी का आक्रामक तेवर की वजह से मोदी और शाह को अपने फैसले से पीछे हटना पड़ा क्योंकि प्रारंभ में ही वे किसी ऐसी चुनौती का सामना नहीं करना चाहते थे। संतुलन बनाये रखने के लिए मनोज सिन्हा को जम्मू कश्मीर का उपराज्यपाल बनाकर भेजा गया। अब फिर से लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा के अंदर विफलता के साथ साथ राष्ट्रीय नेतृत्व का सवाल भी राष्ट्रीय जोड़ी को परेशान कर रहा है। देश भर में योगी को ही अगले विकल्प के तौर पर देखा जाना गुजरात लॉबी की परेशानी है। तमाम तिकड़मों के बाद भी गोरखनाथ पीठ के महंत योगी आदित्यनाथ को हटाना इसी वजह से आसान नहीं होगा।

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