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न्यायिक सक्रियतावाद को बढ़ाने की जरूरत

हेमंत सोरेन पांच महीने तक उस आरोप में जेल में रहे, जो आरोप उनपर किसी भी तरीके से साबित ही नहीं हो पाया। अंततः अदालत ने उनकी जमानत मंजूर कर ली। दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल को निचली अदालत से जमानत मिली तो दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस पर रोक लगा दी और इस बीच ही सीबीआई ने उन्हें दूसरे आरोप पत्र के आधार पर गिरफ्तार कर लिया।

दिल्ली के दो मंत्री काफी समय से जेलों में बंद है। ऐसे में न्यायिक सक्रियतावाद पर नये सिरे से विचार करने की जरूरत है। खास तौर पर जिन कानूनों का वर्तमान में अधिक इस्तेमाल हो रहा है, वे पीएमएलए कानून है। इनके रचयिता और पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिदांवरम खुद स्वीकार चुके हैं कि उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि कानूनो का ऐसा दुरुपयोग होगा।

दरअसल न्यायपालिका और कार्यपालिका के उच्च पदों पर बैठे लोगों में भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचार के बारे में खुलासे एक बड़े विवाद का रूप ले चुके हैं। अब न्यायपालिका में तत्काल सुधार की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू द्वारा भारत के तीन पूर्व मुख्य न्यायाधीशों और यूपीए के कार्यकाल में प्रधानमंत्री कार्यालय के खिलाफ लगाए गए आरोपों की गूंज संसद में सुनाई दी, जिसके बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने यह घोषणा की कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रणाली में सुधार करना जरूरी है।

यह सच है, लेकिन इसके साथ ही न्यायपालिका के कामकाज में भी काफी तेजी लाई जानी चाहिए। इन खुलासों ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए आज की क्लबनुमा और अपारदर्शी कॉलेजियम प्रणाली को जारी रखने के पक्ष में दिए गए सबसे मजबूत तर्क पर करारा प्रहार किया है – कि इससे न्यायिक स्वतंत्रता बनी रहती है।

इनसे सरकार को दीर्घकालिक सुधारों को तेजी से लागू करने के लिए प्रेरित होना चाहिए, जो न केवल जनता के भरोसे पर टिकी संस्था के अहम तत्वों को खाए जा रहे भ्रष्टाचार के दाग को साफ करेंगे, बल्कि न्याय को तेज, प्रभावी और न्यायसंगत बनाने के लिए कई परस्पर जुड़े उपाय भी करेंगे। सरकार को 2013 न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक में उचित संशोधन करके एक राष्ट्रीय न्यायिक आयोग (एनजेसी) नियुक्त करना चाहिए जो पूरी तरह से जांच प्रक्रिया के बाद उच्च न्यायालयों के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति करेगा।

एनजेसी में न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका, प्रख्यात न्यायविदों और नागरिक समाज के कानूनी शिक्षाविदों के प्रतिनिधियों को शामिल किया जाना चाहिए, जो न्यायिक स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए उचित रूप से भारित हों। आयोग के विचार-विमर्श को रिकॉर्ड किया जाना चाहिए और सार्वजनिक समीक्षा के लिए उपलब्ध होना चाहिए। एनजेसी को दुष्कर्म, भ्रष्टाचार और दुराचार के मामलों की जांच करने और उचित दंड देने का अधिकार भी दिया जाना चाहिए।

इससे यह सुनिश्चित होगा कि न्यायपालिका जवाबदेही की आवश्यकता से मुक्त नहीं है। संस्थागत सुधारों के साथ-साथ न्यायपालिका को आधुनिक बनाने और सुव्यवस्थित करने के प्रयास किए जाने चाहिए – नीचे से ऊपर तक – ताकि निचली और उच्च अदालतें कुशलतापूर्वक और पेशेवर रूप से चलें। इसके लिए, सभी स्तरों पर न्यायाधीशों की कई रिक्तियों को भरा जाना चाहिए और निर्धारित समय सीमा के भीतर लंबित 31 मिलियन मामलों का निपटारा किया जाना चाहिए।

कानूनी रिकॉर्ड को आसानी से सुलभ बनाने के लिए उनका डिजिटलीकरण किया जाना चाहिए। लंबी मौसमी छुट्टियों को खत्म किया जाना चाहिए और अदालतों को साल भर काम करना चाहिए। सरकार या न्यायपालिका को यह नहीं भूलना चाहिए कि न्यायिक प्रदर्शन की असली परीक्षा तब होती है जब अदालतें आम जनता की संतुष्टि के लिए काम करती हैं।

लेकिन हाल के वर्षों के अनेक फैसलों ने यह साफ कर दिया है कि जब कभी भी सरकारें किसी पर बुरी नजर डालती है तो न्यायपालिका का नजरिया भी उसी अनुपात में बदल जाता है। दूसरी तरफ कानूनों को अपनी सुविधा के हिसाब से परिभाषित करने वाले अपना कारनामा जारी रखते हैं। ऐसे में यह संसद की जिम्मेदारी बनती है कि वह इन कानूनों के बेजा इस्तेमाल पर भी गौर करे।

ताजा नमूना के तौर पर ही मेडिकल प्रवेश परीक्षा को ही ले सकते हैं, जिसमें यह साफ होता जा रहा है कि घूसखोरी के बल पर अयोग्य छात्रों को आगे बढ़ाने का कारोबार चल रहा था। वहां भी शीर्ष पर बैठे लोगों का रिकार्ड कोई गंगा जल से धुला हुआ नहीं है। ऐसी स्थिति में जनता की सबसे बड़ी पंचायत की यह सामूहिक जिम्मेदारी बनती है कि वह इस किस्म की गड़बड़ियों को दूर करे। यह सरकार की भी जिम्मेदारी है कि वह जनता के प्रति अधिक उत्तरदायी बने क्योंकि मनमाने फैसलों की वजह से स्वायत्त संस्थाओं के शीर्ष पर बैठे लोगों पर भी जनता का भरोसा टूटा है। जनता सर्वोपरि है, इस मूल संवैधानिक सिद्धांत को मानते हुए ही सुधारों की हर स्तर पर जरूरत है।

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