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निरर्थक साक्षातकार और बहस से पलायन

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक अच्छे वक्ता है। लोकसभा चुनाव के पांच चरण पूरे होने के बाद भी वह लोकप्रियता में दूसरों से काफी आगे हैं। इसके बाद भी अचानक प्रेस वालों का इंटरव्यू और आसान सवालों ने उनके असली व्यक्तित्व पर सवाल उठा दिया है। देश के जरूरी मुद्दों पर बोलने से उनका बचना, जनता के बीच संदेह पैदा करने वाला है।

एक ताजा इंटरव्यू में उन्होंने यह कह दिया कि कौन राहुल गांधी। यह भी पलायनवाद का बड़ा नमूना है। चुनावी जनसभाओं में जिसे शहजादे कहते हुए वह आलोचना करने से नहीं थकते और जिसके शब्दों को भी वह इन जनसभाओं में दोहराते हैं, उस व्यक्ति को नहीं पहचानने का भान करना भी खुद को धोखा देने जैसा ही है।

देश की जनता इन शब्दों और वाक्यों के निहितार्थ को अच्छी तरह समझती है। दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र, संयुक्त राज्य अमेरिका, अपने राष्ट्रपति पद के दो प्रमुख दावेदारों के बीच कुछ बहसों के लिए तैयार हो रहा है। लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के अन्यथा अस्थिर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने अभी तक उनके और राहुल गांधी के बीच सार्वजनिक बहस के प्रस्ताव का जवाब नहीं दिया है।

उच्चतम न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश, दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और एक वरिष्ठ पत्रकार के साथ, श्री मोदी और श्री गांधी को एक पत्र भेजा था, जिसमें उनसे उन मुद्दों पर बहस करने का अनुरोध किया गया था जो भारत के संवैधानिक लोकतंत्र के लिए मौलिक महत्व के हैं। श्री गांधी ने प्रस्ताव पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है; श्री मोदी ने चुप्पी साध ली है।

विक्षेपण में एक विशिष्ट अभ्यास में, श्री मोदी के सहयोगी, भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष ने चुनौती लेने के लिए खुद को आगे किया पर देश  को इन दो नेताओँ के बीच बहस को सुनना था। सत्तावादी ढाँचे में ढले नेताओं द्वारा सार्वजनिक बहस को प्राथमिकता देने की संभावना नहीं है। जवाबदेह ठहराया जाना कोई ऐसी चुनौती नहीं है जिसका वे आनंद लेने के लिए जाने जाते हैं।

इस मामले में श्री मोदी की उदासीनता के बावजूद, प्रस्ताव पर करीब से नज़र डालने की ज़रूरत है। प्रतिस्पर्धी राजनीतिक दलों के दो नेताओं के बीच विचारों के स्पष्ट आदान-प्रदान की कल्पना लोकतंत्र के स्वास्थ्य के बैरोमीटर के रूप में की जा सकती है। आख़िरकार, लोकतंत्र उत्साही, परस्पर विरोधी विचार-विमर्श पर पनपता है। समय पर ऐसा प्रयास करने की वजह यह है कि चुनावी मौसम के दौरान, राजनेता अक्सर अपने प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ आरोप लगाते हैं और आरोपों की पुष्टि किए बिना या सवालों के जवाब दिए बिना असुविधाजनक सवाल उठाते हैं।

यह विशेष चुनावी मौसम अपवाद नहीं रहा है। कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि श्री मोदी ने बार-बार आरोप लगाकर पार्टी को बदनाम करने का प्रयास किया है। विपक्ष ने भी श्री मोदी के सत्ता में लौटने पर संविधान के ख़त्म होने की आशंका जताई है। लोकतंत्र में लोगों को यह जानने का अधिकार है कि इनमें से किसी भी आरोप में दम है या नहीं।

एक सार्वजनिक बहस से स्थिति साफ़ हो सकती है। हालाँकि, यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि इस तरह की कवायद से संसदीय चुनाव राष्ट्रपति बनने का जोखिम रहता है। वह विशेष टेम्पलेट भारतीय लोकतंत्र के लिए उपयुक्त नहीं हो सकता है जो केवल दो आवाजों के विपरीत, कई लोगों के बीच बहस से पनपता है और मजबूत होता है।

लेकिन बदली हुई परिस्थितियों में खुद मोदी भी पार्टी को असहज स्थिति में पा रहे हैं। यही वजह है कि अबकी बार चार सौ पार का नारा देने के बाद अब मजबूरी में उन्हें प्रेस से मिलना पड़ रहा है। वैसे जिनलोगों से वह बतौर मीडिया मिल रहे हैं, उनकी छवि भी जनता के बीच गोदी मीडिया की बन चुकी है, यह एक सच है। ऐसे लोग जिस एजेंडे के तहत काम कर रहे हैं, उसे जनता अब अच्छी तरह समझ चुकी है।

आंकड़ों के भ्रमजाल के बीच देश की सुनहरी तस्वीर पेश करने वाले जनता को अब और भ्रमित नहीं कर पा रहे हैं कि सब कुछ अगर अच्छा हो रहा है तो उनके परिवार को दो वक्त की रोटी के लाले क्यों पड़े हुए हैं। इस सबसे जरूरी सवाल का उत्तर न तो मोदी के पास है और न ही इन मीडिया वालों के पास है। रांची के प्रमुख उद्योगपति स्वर्गीय हनुमान प्रसाद सरावगी ने काफी अरसा पहले एक बात चीत में कहा था कि कारखाने कितने ही बन जाएं पर उनमें रोटी का उत्पादन नहीं हो सकता। यह सवाल आज के दौर में उतना ही प्रासंगिक है। ऊपर से कांग्रेस के घोषणापत्र में उल्लेखित तथ्यों का संतोषजनक उत्तर भी भाजपा के पास नहीं है। इस वजह से मोदी का सब कुछ अब पलायनवादी नजर आता है।

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