सर्वोच्च अदालत के पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने हाल के दिनों में दो बेहद महत्वपूर्ण और संवैधानिक फैसले सुनाए हैं। एक यह है कि दिल्ली का बॉस कौन है और प्रशासनिक सेवाएं किसके नियंत्रण में होंगी? दूसरा फैसला यह है कि महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे की सरकार ही जारी रहेगी।
उद्धव ठाकरे को राहत नहीं दी जा सकती, क्योंकि उन्होंने सदन में बहुमत परीक्षण से पहले ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। संविधान पीठ उनके इस्तीफे को रद्द नहीं कर सकती। संविधान पीठ ने दोनों फैसलों के संदर्भ में संविधान, लोकतंत्र, संघवाद, उपराज्यपाल या गवर्नर के जरिए केंद्र सरकार के अनावश्यक दखल और केंद्र की व्यापक शक्तियों के दुरुपयोग आदि पहलुओं की बार-बार व्याख्या की है।
यह सर्वविदित है कि दिल्ली संघ शासित राज्य है। लेकिन 1991 के कानून के बाद यहां विधानसभा है और जनता के द्वारा चुनी हुई सरकार भी है। यह अलग बात है कि पहले जब शीला दीक्षित की सरकार थी तो भाजपा वाले भी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग करते थे।
अब आम आदमी पार्टी की सरकार होने की वजह से भाजपा ने इस पर बात करना ही छोड़ दिया है। इसलिए मानते हैं कि दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है, फिर भी दिल्ली को कानून बनाने का अधिकार है। यह व्याख्या खुद प्रधान न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की है।
संविधान पीठ ने सर्वसम्मत फैसला दिया है कि दिल्ली में उपराज्यपाल (एलजी) ही सर्वेसर्वा नहीं है। वह दिल्ली सरकार के फैसलों को मानने और कैबिनेट की सलाह के अनुसार काम करने को बाध्य हैं। एलजी की शक्तियां उन्हें दिल्ली विधानसभा और निर्वाचित सरकार की शक्तियों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं देतीं।
चूंकि निर्वाचित सरकार अपने क्षेत्र के लोगों के प्रति जवाबदेह होती है और उसे जनता की मांगों का भी ध्यान रखना होता है, लिहाजा उसके नियंत्रण में प्रशासनिक ढांचा होना चाहिए। फैसला दिया गया है कि अधिकारियों की नियुक्ति और तबादलों का अधिकार केजरीवाल सरकार को होगा।
बेशक अफसरों का काडर बुनियादी तौर पर भारत सरकार के अधीन होता है, लेकिन राज्य सरकारें उनकी तैनाती और तबादले का फैसला ले सकती हैं। केंद्र एलजी के जरिए राज्य के अधिकारों को टेकओवर न करे। केंद्र सभी विधायी शक्तियां रख लेगा, तो संघीय ढांचा ही खत्म हो जाएगा।
यह टिप्पणी भी प्रधान न्यायाधीश ने की, जो संविधान पीठ का नेतृत्व कर रहे थे। बीते नौ सालों से अधिक समय से दिल्ली की केजरीवाल सरकार और एलजी के बीच विवाद की स्थिति बनी हुई है। आम आदमी पार्टी के विधायकों और नेताओं ने एलजी के प्रति अपशब्दों का भी प्रयोग किया।
चूंकि दिल्ली में प्रचंड जनादेश आप को मिल रहा है और भाजपा अपने चंद विधायकों के साथ सदन में मौजूद है, लिहाजा प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के स्तर पर यह रणनीति तय की गई हो कि केजरीवाल सरकार को काम नहीं करने देना। अब संविधान पीठ के फैसले के बाद भाजपा को अपनी रणनीति और एजेंडे पर पुनर्विचार करना चाहिए।
अभी तक असमंजस के सवाल थे कि दिल्ली कौन चलाएगा? दिल्ली का कार्यकारी प्रमुख कौन है? दिल्ली जैसे राज्य से जुड़े फैसले कौन लेगा? नौकरशाही पर नियंत्रण किसका होगा? केंद्र सरकार कहां तक दखल दे सकती है? अब संविधान पीठ ने स्पष्ट व्याख्या कर दी है कि पुलिस, भूमि, जन-व्यवस्था के मुद्दे एलजी के जरिए भारत सरकार के अधीन होंगे। शेष फैसले निर्वाचित केजरीवाल सरकार लेगी।
अब पढ़े लिखे लोगों की सरकार को अफसरशाही यूं ही चलता नहीं कर सकती। आशीष मोरे नामक एक अधिकारी को आगे कर अफसरों और केंद्र सरकार ने पानी की गहराई नापने का प्रयास किया था। अपने सर पर आफत आते देख आशीष मोरे भी लाइन में लग गये और अपना तबादला स्वीकार कर लिया।
दूसरी तरफ हर मामले में टांग अड़ाने वाले उप राज्यपाल ने भी शीर्ष अदालत के फैसले के बाद सारी वैसी फाइलें दिल्ली सरकार को लौटा दी, जिसका सरोकार उप राज्यपाल के कार्य क्षेत्र से नहीं था। अब दूसरा फैसला महाराष्ट्र को लेकर किया गया है। मौजूदा भाजपा-शिवसेना की सरकार जारी रहेगी।
अलबत्ता संविधान पीठ ने तत्कालीन राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी और विधानसभा अध्यक्ष राहुल नार्वेकर के फैसलों पर सवाल उठाए हैं। विदेश से लौटने के बाद राहुल नार्वेकर जिस किस्म की भाषा बोल रहे हैं, उससे तय माना जा सकता है कि अगर उन्होंने पार्टी व्हीप का उल्लंघन करने वाले विधायकों पर फैसला नहीं लिया तो यह मामला फिर से सुप्रीम कोर्ट तक जाएगा।
आम आदमी की समझ के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट का फैसला जैसा है, उसके मुताबिक विधानसभा अध्यक्ष नार्वेकर इस दावे को खारिज ही नहीं कर सकते कि शिंदे गुट के विधायकों ने गलती की थी। ऐसे में अगर उनकी सदस्यता को जारी रखना है तो कानून के पेंच से कोई काट निकालना पड़ेगा। लेकिन शीर्ष अदालत के दोनों फैसले कुछ ऐसे हैं कि इससे भावी राजनीति की दिशा और दशा तय होगी।