पिछले कई चुनावों में अंतिम समय में जो माहौल बनता था, उससे देश की आम जनता से जुड़े मुद्दे गौण हो जाते थे। इस बार कर्नाटक में भी यह दांव मोदी की तरफ से चला तो गया पर जनता ने इस पर अपनी सोच को अपनी आवश्यकताओं पर केंद्रित रखा और उसका राजनीतिक परिणाम सामने है।
कर्नाटक में भाजपा की हार की जिम्मेदारी भी नरेंद्र मोदी की है। भले ही अब वर्तमान भाजपा इसकी जिम्मेदारी मुख्यमंत्री बोम्मई और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा पर डाल दे लेकिन हर चुनाव में मोदी नाम का सहारा था, इसलिए पराजय की जिम्मेदारी भी मोदी और शाह की जोड़ी की है।
काफी लंबे समय से राजनेताओं व कार्यकर्ताओं के अभद्र भाषा वाले बयान हर जिम्मेदार नागरिक को परेशान करते रहे हैं। देश का जनमानस यह देखकर परेशान तो था लेकिन कुछ करने की स्थिति में नजर नहीं आया। घृणा फैलाने वाले बयानों की लगातार हो रही बढोत्तरी को देखकर चिंतित सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों को निर्देश दिया है कि वे घृणा फैलाने वालों के खिलाफ तत्काल प्रभाव से मुकदमा दर्ज करें।
फिर भी कोई कार्रवाई इसलिए नहीं हो पायी क्योंकि इसके पीछे तो दरअसल मोदी का प्रोत्साहन था और वे बजरंग दल पर हुई बात को सीधे बजरंग बली तक ले जाकर चुनावी बाजी पलटना चाहते थे। वैसे यह पहली बार नहीं है कि शीर्ष अदालत ने देश की गंगा-जमुनी संस्कृति को ठेस पहुंचाने की कोशिशों को लेकर अप्रसन्नता जाहिर की हो।
यहां तक कि पिछले माह इस तरह की अभद्र भाषा को एक दुश्चक्र बताया था। साथ ही अचरज व्यक्त किया था कि अब तक देश के राज्य इस तरह की प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिये कोई कारगर तंत्र क्यों विकसित नहीं कर पाये। भले ही अदालत ने इस दुश्चक्र के लोगों की पहचान जाहिर नहीं की थी लेकिन टीवी की दुनिया में मोदी भक्त एंकर दरअसल क्या एजेंडा परोसते थे, यह देश की जनता जान चुकी है।
निस्संदेह, किसी भी समृद्ध लोकतंत्र के लिये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अपरिहार्य है। जो किसी समाज को जीवंत बनाये रखने तथा पुष्पित-पल्लवित करने के लिये जरूरी शर्त है। यह हमारा संवैधानिक अधिकार भी है। संविधान का अनुच्छेद 19(1)ए सभी नागरिकों को भाषण तथा अभिव्यक्ति की आजादी की गारंटी भी देता है।
लेकिन यह आजादी स्वच्छंद व्यवहार की अनुमति नहीं देती। दूसरी ओर संविधान का अनुच्छेद 19(2) राज्य को सात आधारों पर निरंकुश अभिव्यक्ति पर जरूरी अंकुश लगाने के लिये कानून का उपयोग करने के लिये अधिकृत भी करता है। यदि किसी की अभिव्यक्ति से देश की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्य के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता, अदालत की अवमानना, मानहानि या किसी अपराध के प्रति उकसाने की कोशिश होती है तो राज्य को दखल देने का अधिकार मिला है।
कहने का अभिप्राय: यह है कि हमें अभिव्यक्ति की आजादी तो मिली है,लेकिन वह असीमित नहीं है। दरअसल, हाल के दिनों में मुख्य समस्या धर्म व राजनीति के घालमेल से उत्पन्न हुई है। यह भी तथ्य है कि अभद्र भाषा की कोई सटीक परिभाषा नहीं होती, यही वजह है कि राजनेता अपने बयानों की सुविधानुसार व्याख्या करके अपने बचाव के रास्ते तलाश लेते हैं।
विडंबना यह भी है कि अकसर राज्य भारतीय दंड संहिता और अन्य कानूनी प्रावधानों को लागू करने के लिये राजनीतिक हितों के चलते पक्षपातपूर्ण तौर-तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। जिसके चलते नफरत फैलाने वाले बचाव के रास्ते निकाल लेते हैं। दरअसल, सही अर्थों में अभिव्यक्ति की आजादी के मायने हैं उन विचारों की आजादी जो एक स्वस्थ बहस और बौद्धिक विमर्श का संवर्धन करते हैं। वैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का प्रयोग करने पर किसी पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।
लेकिन यदि भाषण की प्रकृति समाज में अलगाव के बीज बोती नजर आती है, तो उसे दंडात्मक प्रावधानों के जरिये नियंत्रित किया जा सकता है। ऐसे बयान समाज में वैमनस्य और हिंसा को बढ़ावा देते हैं। संयुक्त राष्ट्र की अभद्र भाषा पर रणनीति और कार्ययोजना के अनुसार, वह भाषण जो किसी व्यक्ति या समूह पर तो वह अपराध की श्रेणी में माना जा सकता है।
पुलिस को बिना शिकायत के अभद्र भाषा का प्रयोग करने वालों पर मुकदमा दर्ज करने का आदेश कई तरह की चिंताओं को भी बढ़ाता है। आशंका जतायी जा रही हैं कि कहीं अपने विरोधियों को सबक सिखाने के लिये राज्य सरकारें इस छूट का दुरुपयोग न करने लगें। वैसे अब कर्नाटक का परिणाम यह भी साबित कर गया है कि ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स के जरिए विरोधियों की बांह मरोड़ने की चाल फेल हो रही है।
कांग्रेस नेता डीके शिवकुमार ने चुनाव के बाद इस पर साफ साफ अपनी बात रखी है। इस दौरान आवेग में वह रो पड़े थे। वैसे अफसरशाही की सोच मौका देखकर भेष बदलना भी होता है। इसलिए अब आने वाले दिनों में क्या होता है, यह देखना रोचक होगा।