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उम्मा की मौत के वक्त ओमान में था लड़का
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उनके घर में तीन बच्चे पहले से ही थे
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कहानी की फिल्म बनी तो पता चला
राष्ट्रीय खबर
तिरुअनंतपुरमः गोवा फिल्म फेस्टिवल में जब इस कहानी की चर्चा सिनेमा निर्माताओं के बीच हो रही थी तो किसी को अंदाजा नहीं था कि इस सच्ची कहानी पर आधारित फिल्म भी बन सकती है। सिर्फ फेसबुक पोस्ट में तमाम तथ्यों की जानकारी मिलने के बाद सिद्दीक पराभूर नामक निर्देशक ने इसे वास्तव में उतार दिया।
अब फिल्म बन गयी तो यह केरल में धूम मचा रही है। इस फिल्म का नाम एन्नू सांथम है। सिनेमा जगत के लोगों का मानना है कि फिल्म के कारोबार को देखते हुए शीघ्र ही यह फिल्म कई अन्य भाषाओँ में भी डब हो सकती है। अच्छी बात यह है कि इस कहानी की सच्चाई बयां करने वाले जीवित हैं।
उनके जरिए ही यह कहानी दुनिया के सामने आयी है। केरल के मल्लपुरम जिला के कालिकाभूर इलाके के निवासी अब्दुल अजीज और उनकी पत्नी थेन्नादन सुबैदा की जीवनी पर यह फिल्म आधारित है। सच्ची घटना होने की वजह से ही यह फिल्म लोगों को आकर्षित करने में सफल हो रही है।
गत नौ जनवरी को फिल्म के रिलीज होन के बाद दिनोंदिन उसकी लोकप्रियता ऊपर की तरफ जा रही है। कांग्रेस नेता शशि थरूर ने भी इस फिल्म की प्रशंसा सोशल मीडिया में की है। मुसलमान दंपति ने अपने तीन बच्चों के अलावा भी अपने घर की महिला के तीन संतानों को अपना लिया था।
जिस महिला की संतानों को सुबैदा ने अपनाया था, वह चक्की नाम की महिला थी। अचानक उसकी मौत होने के बाद उनके तीनों बच्चे अनाथ हो गये थे। इसी वजह से चक्की के तीन बच्चों श्रीधरण, रमानी और लीला को उन्होंने अपने घर में पाल पोसकर बड़ा किया। इस बारे में बाहर के लोगों को ज्यादा जानकारी नहीं थी।
पहली बार लोगों का ध्यान इस तरफ तब गया जब श्रीधरण ने फेसबुक पर अपनी यह कहानी बयां की। पहले तो लोगों ने किसी फर्जी एकाउंट की यह कहानी पढ़कर इसे कोरी कल्पना कहा था।
दूसरी तरफ नौकरी के सिलसिले में ओमान में फंसे श्रीधरण ने अपनी उम्मा को अंतिम समय में नहीं देख पाने के दुख में यह जानकारी सांझा की थी। बाद में लोगों को पता चला कि दरअसल यह घटना सच्ची है।
जिसके बारे में श्रीधरण ने काफी कुछ बाद में बयां किया। उनके मुताबिक तीन हिंदू बच्चों को अपने घर में पालना आसान काम नहीं था। घर में लालन पालन करने के बाद भी उम्मा (मां) और उप्पा (पिता) ने कभी भी उनके धर्म परिवर्तन का काम नहीं किया।
वर्ष 2019 में किडनी की बीमारी से सुबैदा की मौत के बाद श्रीधरण ने सार्वजनिक तौर पर अपना दुख जाहिर किया। इस बीच उनके उप्पा यानी पाता अजीज हाजी भी दो साल के भीतर ही चल बसे।
श्रीधरण ने बताया कि उस परिवार में तीन बच्चे थे। उनके घर में इन तीनो के आने के बाद भी उनके घर में ओक बेटी हुई थी। इसलिए हमलोग सभी एक दूसरे को कभी अलग नहीं समझ पाये। आम तौर पर सौतेला शब्द से जो भाव उभरते हैं, वह इस घर में कभी नहीं रहा।
श्रीधरण ने लिखा था कि उम्मा का अपना बेटा जाफर और मेरे भाई को उम्मा ने एक साथ दूध पिलाया था। सभी को बिना धर्म परिवर्तन के बड़ा करना कोई आसान काम नहीं था। यहां तक की श्रीधरण के साथ उनकी दो दीदी टीका लगाकर मंदिर में जाया करते थे।
उन्होंने कहा था कि उम्मा ने सिर्फ यह सीखाया था कि किसी और को चोट पहुंचाना धर्म नहीं है। चोरी, गलत आचरण नहीं करने और दूसरों की मदद करने की सीख भी उम्मा से ही मिली। दोनों बहनों की शादी भी हिंदू विधि से ही हुई है। आज अपने पैर पर खड़े होने के बाद भी उन्हें इस बात का दुख हमेशा रहेगा कि उम्मा के अंतिम समय में वह उनका पास नहीं थे।