झारखंड आंदोलन की नींव ही स्थानीय पहचान और यहां की नौकरियों पर दूसरे राज्यों के लोगों के कब्जे के खिलाफ पड़ी थी। इसके बीच सूदखोरों और महाजनों के खिलाफ शिबू सोरेन ने बहुत बड़ा आंदोलन चलाया और काफी दिनों तक वह भूमिगत रहकर इस आंदोलन को चलाते रहे।
तब से अब तक हर बार किसी न किसी बहाने स्थानीय लोगों की इस जायज मांग को अटकाया जाता रहा है। इस बार भी राज्यपाल द्वारा इससे संबंधित संचिका को लौटाये जाने के पीछे कोई कानूनी पेंच लगा है लेकिन दरअसल इसका मुख्य कारण राजनीति है।
भाजपा यह नहीं चाहती है कि इसका श्रेय झारखंड मुक्ति मोर्चा को मिले क्योंकि यदि ऐसा होता है तो स्थानीय लोगों यानी आदिवासियों और मूलवासियों के बीच झामुमो की लोकप्रियता से उन्हें नुकसान हो सकता है। दूसरी तरफ दूसरे राज्यों से यहां आकर बसे लोगों को अपना भविष्य अंधकारमय दिखता है।
ऐसे लोग भी वोट बैंक ही हैं। लिहाजा गेंद को एक से दूसरे के पाले में फेंकने का काम चल रहा है। हेमंत सरकार ने नियोजन नीति-2021 बनायी थी। इसमें यह प्रावधान था कि थर्ड और फोर्थ ग्रेड की नौकरियों में सामान्य वर्ग के उन्हीं लोगों की नियुक्ति हो सकेगी, जिन्होंने 10वीं और 12वीं की परीक्षा झारखंड से पास की हो।
रांची हाई कोर्ट ने इसे असंवैधानिक माना है और कहा है कि यह समानता के अधिकार के अधिकार के खिलाफ है। हाईकोर्ट के इस निर्णय के बाद नयी नियोजन नीति के प्रावधानों के अनुरूप हो चुकीं या होने वाली वाली तकरीबन 50 हजार नियुक्तियों पर सीधा असर पड़ा है।
तकरीबन दो दशक पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने स्थानीयता बनायी थी। भारी बवाल-विवाद के बाद उसे भी कोर्ट ने रद्द कर दिया था। इस बार हेमंत सोरेन ने भी 1932 के खतियान के आधार पर ही स्थानीयता नीति बनाने की तैयारी की है, यह जानते और स्वीकारते हुए कि अदालत में इस पर हथौड़ा चल सकता है।
राजनीतिज्ञों की अदूरदर्शिता के कारण बार-बार झारखंडी ठगे जा रहे हैं। हेमंत की सरकार ने नयी नियोजन नीति बनायी, जिसे हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया है। हेमंत सोरेन की दूसरी बड़ी उपलब्धि 1932 के खतियान के आधार पर स्थानीयता नीति बनाने का प्रस्ताव विधानसभा से पास कराना।
1932 के खतियान के आधार पर स्थानीयता नीति तो बन जाएगी, लेकिन केंद्र की नौंवीं अनुसूची में इसे शामिल करना होगा। इसीलिए उन्होंने केंद्र की नौवीं अनुसूची का पेंच फंसा दिया। सांप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे वाले अंदाज में।
प्रस्ताव के मुताबिक झारखंड की भौगोलिक सीमा में जो रहता हो और स्वयं अथवा उसके पूर्वज के नाम 1932 अथवा उसके पूर्व के सर्वे के खतियान में दर्ज हों, वह झारखंडी माना जाएगा। भूमिहीन के मामले में उसकी पहचान ग्राम सभा करेगी, जिसका आधार झारखंड में प्रचलित भाषा, रहन-सहन, वेश-भूषा, संस्कृति और परंपरा होगी।
पेंच इसमें यह फंसा है कि इस प्रावधान को भारत के संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए भारत सरकार से अनुरोध किया जाएगा। अधिनियम संविधान की नौवीं अनुसूची में सम्मिलित होने के उपरांत ही प्रभावी माना जाएगा।
सभी जानते हैं कि स्थानीयता नीति राज्य सरकार के दायरे की बात है तो इसमें केंद्र की भूमिका क्यों तय कर दी गयी। जो लोग थोड़ा बहुत राजनीतिक समझ रखते हैं, उन्हें मालूम है कि यह हेमंत सरकार का राजनीतिक स्टंट है। झारखंड प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष सांसद दीपक प्रकाश का कहना है कि हेमंत सरकार मुद्दों को लटकाने, भटकाने और अंटकाने का काम करती है।
झारखंड के मूलवासी हेमंत सरकार की नियोजन नीति से परेशान थे। भाषा के आधार पर भी राज्य सरकार ने अनुचित निर्णय लिया है। घर-घर बोली जाने वाली हिंदी और अंग्रेजी को हटाकर इस सरकार ने चंद लोगों द्वारा व्यवहार में लायी जाने वाली उर्दू भाषा को तुष्टीकरण के तहत प्राथमिकता दी थी। रघुवर दास की सरकार ने भी नयी स्थानीय नीति बना कर लागू की थी।
वर्ष 2019 में हेमंत सोरेन सीएम बने। उन्होंने रघुवर दास की नीति को बदलने की कोशिश की थी। मामला जब हाइकोर्ट में गया तो उसने इसे असंवैधानिक बता कर रद्द कर दिया था। इससे साफ है कि सत्ता पर आज भी दरअसल बाहरी लोगों का कब्जा है।
झारखंड विधानसभा की बहाली में पिछले दरवाजे से हुए बहालियों के बाद से इसकी गति लगातार तेज होती गयी है। सत्ता पर कोई भी हो, इस पिछले दरवाजे से बहाली के अवसर किसी ने भी सही तरीके से बंद करने की कोशिश ही नहीं की है।
विधानसभा की बहालियों पर जांच रिपोर्ट का अब भी धूल फांकना इसका प्रमाण है। अब सामाजिक स्तर पर लोग मुखर हो रहे हैं। संभव है कि इसी सामाजिक तेवर को भांपते हुए सभी राजनीतिक दल भी अब संभल जाएं क्योंकि वोट कट जाने का भय ही एक मात्र वह कारण है, जिससे राजनीतिक दल और उसके नेता डरते हैं।