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बच्चों के किसी भी स्क्रीन से चिपकने के खतरनाक नतीजे होते हैं

हर स्क्रीन के कुप्रभावों से मुक्त होने का तरीका है खुले मैदान में खेलना

  • कामकाजी परिवारों के लिए यह आम बात है

  • जापान में इस पर किया गया है गहन शोध

  • आंख के लिए भी बाहर निकलना जरूरी है

राष्ट्रीय खबर

रांचीः यह आज के दौर में घर घऱ की कहानी है। घर में माता पिता और दूसरे बड़े लोग जहां टीवी की स्क्रीन या दूसरे कार्यों में व्यस्त होते हैं, घऱ के बच्चे को मोबाइल पर गेम देकर अथवा वीडियो देखने का मौका देकर अपनी जिम्मेदारी टाली जाती है।

लेकिन लगातार किसी भी स्क्रीन को देखते रहने की वजह से बच्चों पर इसका कुप्रभाव पड़ता है। इसी वजह से शोधकर्ताओं ने स्क्रीन के कुप्रभाव से बच्चों को बचाने के लिए उन्हें खुले मैदान में खेलने का अवसर देने की वकालत की है। इसका एक मकसद स्क्रीन से ध्यान हटाना है।

इससे बच्चों की आंख हर रोशनी में एडजस्ट होने के लिए विकसित होती है। दूसरी तरफ मैदान में दूसरे बच्चों को खेलते कूदते देख भी बच्चे का मानसिक विकास होता है। इस एक पहल से बच्चों पर लगातार स्क्रीन देखने का जो नकारात्मक असर होता है, वह भी खुले मैदान में होने की वजह से घटता जाता है।

आज के दौर में यह आम बात हो गयी है कि घर के बच्चे को मोबाइल, टैबलेट या फिर टीवी देकर बहलाया जाता है। इसका मकसद घर के दूसरे सदस्य अपने दूसरे काम निपटा सकें। लेकिन बाद में यही मुद्दा उनके गले की हड्डी बन जाता है।

इस भावी परेशानी से बचने के लिए ही बच्चों को खुले मैदान में खेलने की सिफारिश की जा रही है। जापान में हुए एक शोध से पाया गया है कि लगातार स्क्रीन से चिपके रहने वाले बच्चों का संवाद करने का गुण अविकसित रह जाता है। ऐसे बच्चे दो साल से लेकर चार साल तक के होते हैं।

शोध दल ने इसे समझने के लिए लगातार 18 महीनों तक 885 बच्चों का अध्ययन किया था। इस शोध में शामिल होने वाले बच्चे अधिकतम चार साल की उम्र के थे। शोध दल ने इस बात को दर्ज किया कि ऐसे बच्चे औसतन दिन में कितने घंटे तक स्क्रीन से चिपके रहते हैं।

पता चला कि दो साल की उम्र से अधिक देर तक स्क्रीन से चिपके रहने वाले बच्चे अच्छी तरह संवाद नहीं कर पाते हैं। यह परेशानी बच्चे के माता पिता के साथ अधिक होती है। दूसरी तरफ जो बच्चे मैदान में खेलते कूदते रहे, वे आसानी से किसी दूसरे के साथ संवाद स्थापित कर पाते हैं।

जापान के ओसाका यूनिवर्सिटी के इस शोध दल के नेता और प्रोफसर केनजी जे शूचिया ने इसकी जानकारी दी है। शोध दल का मानना है कि बच्चा से बड़ा होने तक स्क्रीन से लगातार चिपके रहने की वजह से उत्पन्न व्यक्तित्व की यह खामी बनी रहती है।

यहां तक की ऐसे बच्चों की दैनिक दिनचर्या भी सामान्य नहीं रह पाती है। इस शोध से जुड़े टोमोको निशिमुरा ने कहा है कि सामाजिक स्तर पर भी इसका कुप्रभाव पड़ता है क्योंकि स्क्रीन से चिपकने की बुरी आदत की वजह से ऐसा बच्चा सामाजिक तौर पर दूसरों से मिल नहीं पाता है।

कोरोना महामारी के बाद इसके कुप्रभाव और साफ साफ सामने आये हैं। दरअसल कोरोना लॉकडाउन काल में भी घर के बच्चों को बाहर निकलने की मनाही थी। ऐसे में बच्चों को मोबाइल अथवा कंप्यूटर गेम में उलझाने की वजह से उनके व्यक्तित्व में यह खामी शोध में साफ साफ नजर आयी है।

जो बच्चे खेल कूद के जरिए शारीरिक तौर पर अधिक सक्रिय रहे उनका मानसिक और शारीरिक विकास ठीक होने के साथ साथ उनकी आंख की शक्ति भी शोध में बेहतर पायी गयी है। जिस कारण शोध दल ने कहा है कि बच्चों पर स्क्रीन का नकारात्मक असर पड़ता है। इस कुप्रभाव को कम करने की तरीका यही है कि बच्चों को खुले मैदान में भाग दौड़ करने का पर्याप्त अवसर प्रदान किया जाए।

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