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अंधत्व निवारण की दिशा में जारी शोध के तहत नया विकल्प

शोध दल ने आंख के कोषों की थ्री डी प्रिटिंग की

  • कई हिस्सों के सुक्ष्म सेल तैयार किये गये

  • कई बीमारियों में कारगर साबित होगी तकनीक

  • असली कोष के जैसा ही आचरण करते हैं यह कोष

वाशिंगटनः अब अंधेपन के ईलाज में भी थ्री डी बॉयोप्रिंटिग तकनीक काम आने जा रही है। पहली बार इसे आजमाया गया है और प्रारंभिक परीक्षण के उत्साहजनक परिणाम निकले हैं। समझा जा रहा है कि इस तकनीक के विकसित होने की स्थिति में आंख के ईलाज की पूरी प्रक्रिया ही जेनेटिक चिकित्सा पर आधारित हो जाएगी।

वैसे भी पहले से ही इंसानों के अंगों की थ्री डी प्रिटिंग का प्रयोग पहले से जारी है। इस शोध से जुड़े वैज्ञानिकों का मानना है कि इस विधि से उम्र के असर से होने वाले मैक्यूलर डिजेनेरेशन एवं अन्य बीमारियों का ईलाज किया जा सकेगा। स्टेम सेल की मदद से आंख के अंदर के कोषों की प्रिटिंग करने के बाद उन्हें आंख में डालकर रोगी की परेशानी को स्थायी तौर पर दूर किया जा सकेगा। अमेरिका में यह काम नेशनल आई इंस्टिट्यूट ने किया है। इस दल का नेतृत्व एक भारतवंशी वैज्ञानिक डॉ कपिल भारती कर रहे हैं।

इस दल ने इस विधि से आंख के कई हिस्सों के कोषों को तैयार किया है। इनलोगो ने खून और रेटिना के  बीच के कोषों के अलावा रेटिना में रोशनी की पहचान करने वाले फोटो रिसेप्टरों के पास के कोष भी विकसित किये हैं। यह काम पूरा होने के बाद सैद्धांतिक तौर पर यह माना गया है कि इस पद्धति से इंसानी आंखों की कई बीमारियों की ईलाज संभव होगा।

इस बारे में डॉ भारती ने बताया कि आंख के अंदर को कोषों पर इतनी गहराई से अनुसंधान भी पहले नहीं हुआ था। सिर्फ यह पता था कि एएमडी बीमारी की शुरुआत ब्लड रेटिना बैरियर के बाहरी हिस्से में होता है। वहां पर की आंतरिक संरचना काफी जटिल है। इसलिए बारी बारी से हर हिस्से को तथा वहां मौजूद कोषों की भूमिका को समझा गया था।इस  कोषों के जरिए ही आंख को पोषक तत्व मिलते हैं तथा आंख के अंदर का कचड़ा बाहर निकलता रहता है।

शोध दल ने स्टेम सेल की मदद से ऐसे कोषों की संरचना की विस्तार के जानकारी हासिल करने के बाद उनकी थ्री डी बॉयो प्रिंटिंग की थी। इन्हें जैविक तौर पर नष्ट  होने वाले पदार्थ पर छापा गया था। इसकी प्रिटिंग होने के बाद वहां बने कोषों ने तुरंत ही विकसित होना प्रारंभ कर दिया। परीक्षण के नौंवे दिन वैज्ञानिकों ने रेटिनल पिगमेंट सेल को सही स्थान पर स्थापित किया।

इस तरह सेल को पूरी तरह विकसित होने में 42 दिनों का समय लगा। इस बीच उसकी प्रगति और अन्य वैज्ञानिक परीक्षणों का दौर जारी रहा, ताकि भविष्य में हर दिन इन सेलों की प्रगति का आंकड़ा दर्ज किया जा सके। पूरी तरह विकसित ऐसे सेलों ने आंख के अंदर मौजूद प्राकृतिक सेलों के जैसा ही आचरण करना प्रारंभ कर दिया था।

इस शोध से जुड़े रहे थ्री डी बॉयो प्रिंटिंग लैब के निदेशक मार्क फेरर ने कहा कि इस पद्धति से आंख के ब्लड रेटिना टिश्यूज को तैयार कर पाना संभव हुआ है। इससे भविष्य में ऐसी बीमारियों से जूझ ऱहे मरीजों को थ्री डी बॉयो प्रिंटिंग पद्धति के सहारे ही नये कोष उपलब्ध करा पाना संभव होगा, जो शरीर के अंदर अपन स्थान लेन के बाद सही तरीके से काम करने लगेंगे।

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