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उल्कापिंडों की दिशा बदलने का नया प्रयोग आजमाया गया

  • एक सेकंड में 96 लाख तरंग बरसाये गये

  • धरती को संकट से बचाने का नया अभियान

  • परिणाम आने में अभी कुछ दिन और लगेंगे

राष्ट्रीय खबर

रांचीः खगोल वैज्ञानिकों ने आज एक अनोखा प्रयोग किया है। इस प्रयोग का अंतिम नतीजा समझने में अभी वक्त लगेगा क्योंकि इस प्रयोग के केंद्र में एक उल्कापिंड है। यह खगोलीय पिंड आकार में करीब पांच सौ फीट चौड़ा है और अभी धरती के सबसे करीब होने की वजह से उसे इस परीक्षण के लिए चुना गया था।

प्रयोग के बारे में मिली जानकारी के मुताबिक 2010 एक्ससी15 नामक इस उल्कापिंड पर रेडियो तरंगों की बारिश की गयी है। वैज्ञानिक आकलन के मुताबिक इस निर्धारित समय सीमा के भीतर उस पर 96 लाख खास श्रेणी के रेडियो तरंग टकराये हैं। अब इसका परिणाम क्या हुआ है, इसकी जांच का निष्कर्ष आने में वक्त लगेगा।

वैसे वैज्ञानिकों ने स्पष्ट कर दिया है कि अभी इस उल्कापिंड के धरती से टकराने की कोई आशंका नहीं थी। फिर भी वह जिस धुरी पर घूम रही है, उसके मुताबिक वर्ष 2029 में इसके पृथ्वी की तरफ आने का खतरा है। जिस उल्कापिंड के पृथ्वी की तरफ आने का खतरा है, वह अपोपिस है।

आकलन के मुताबिक आगामी 13 अप्रैल 2029 को यह धरती के काफी करीब होगा। आकलन के मुताबिक उस वक्त उसकी दूरी धरती से चांद की दूरी का दसवां हिस्सा रह जाएगा। इतनी कम दूरी में पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण उसे अपनी तरफ खींच सकता है। इसे खतरे को टालने के लिए यह नया प्रयोग किया गया है। यह जांचा जा रहा है कि लगातार रेडियो तरंगों की बारिश का उल्कापिंड पर क्या प्रभाव होता है।

इसका परिणाम जानने के लिए वैज्ञानिकों को इंतजार करना पड़ेगा ताकि इस बात की पुष्टि हो सके कि वह उल्कापिंड अपनी धुरी से हटा है अथवा नहीं। इस काम को अंजाम देने के लिए वैज्ञानिकों ने एचएएआरपी हार्प यानी हाई फ्रीक्वेंसी ऑरोरल रिसर्च प्रोग्राम के रेडियो तरंगों का प्रयोग किया  है। इन तरंगों का बारिश का सिर्फ उल्कापिंड की धुरी बदलने का प्रयोग ही नहीं है।

इसके जरिए वे उस उल्कापिंड की भौतिक संरचना का भी पता लगाने वाले हैं। इस काम में एस बैंड और एक्स बैंड की तरंगों का प्रयोग किया गया है। इस बारे में नासा के वैज्ञानिक मार्क हेंस ने कहा कि यह बिल्कुल नया प्रयोग है। इन तरंगों के जरिए हमलोग सुदूर महाकाश के खलोगीय पिंडों के अंदर भी झांक सकते हैं।

अभी इस प्रयोग के दौरान यह उल्कापिंड धरती से चांद की दूरी से लगभग दोगुनी दूरी पर था। हार्प के जरिए उस पर 96 लाख रेडियो तरंगों की बारिश हर सेकंड हुई है। हर दो सेकंड के अंतराल में इसे दोहराया गया है। अब इसका परिणाम क्या हुआ है, उसे जानने के लिए नये आंकड़ों की प्रतीक्षा की जा रही है। दरअसल धरती के करीब ऐसे उल्कापिंडों की कमी नहीं है। जब छोटे आकार के उल्कापिंड अचानक धरती की तरफ आते हैं तो उनका अधिकांश हिस्सा आसमान मे ही जलकर राख हो जाता है।

बड़े आकार के उल्कापिंडों के साथ ऐसा नहीं होता और वे धरती के लिए खतरा बनते हैं। कुछ साल पहले अचानक एक ऐसा ही उल्कापिंड रूस के एक शहर के पास आ गिरा था, जिससे अनेक लोग घायल हो गये थे। वैसे हम पहले से इस बात को जानते हैं कि दो बड़े उल्कापिंडों की गिरने से ही धरती पर से डायनासोर खत्म हो गये थे और नये सिरे से शीतकाल की शुरूआत हो गयी थी।

इसलिए धरती की तरफ आने वाले उल्कापिंडों का रास्ता बदलने का प्रयोग लगातार जारी है। इसके पहले एक सैटेलाइट की टक्कर एक अन्य उल्कापिंड से करायी गयी थी, जिससे वह अपनी धुरी से हट गया था। अब रेडियो तरंगों का असर क्या हुआ है, इसका परिणाम आने में थोड़ा वक्त लगेगा। अगर यह प्रयोग सफल रहा तो धरती की तरफ आने वाले किसी भी ऐसे खगोलीय पिंड का रास्ता बदलने के लिए यह तरीका सबसे सुरक्षित साबित होगा। अगर परीक्षण असफल रहा तब भी ऐसे पिंडों के अंदर क्या कुछ है, उस बारे में जानकारी मिल जाएगी।

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