अजब गजबनागालैंडम्यांमारलाइफ स्टाइल

पहले यहां के दुश्मन का सर काट लेने की प्रथा चालू थी

इस गांव के अधिकांश घर दो देशों में बंटे है

  • अब भारत का लोकप्रिय पर्यटन केंद्र है

  • रसोई घर यहां तो सोने का कमरा म्यांमार में

  • ग्राम प्रधान की कुल 60 पत्नियां हैं इलाके में

राष्ट्रीय खबर

कोहिमाः इस इलाके में पहले दूसरे लोगों का जाना वर्जित था। यहां के लोग अपने किसी भी दुश्मन अथवा अनजान व्यक्ति के वहां आने पर उसका सर काट लिया करते थे। उनकी सोच थी कि जिसके पास अधिक इंसानी खोपड़ियां होंगी, उसकी खेती उतनी अच्छी होगी। लेकिन अब यह बीते कल की बात है।

नागालैंड और म्यांमार की सीमा पर बसा है यह अंतिम भारतीय गांव लोंगवा। प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर इस गांव के बीच से ही दोनों देशों की सीमा रेखा है। इसके बाद भी गांव के लोगों को इसकी कोई चिंता नहीं है। वे दोनों देशों के बीच आराम से आना जाना करते हैं और इसके लिए कोई वीसा भी नहीं लगता है। बीच से विभाजन रेखा होने की वजह से अधिकांश घरों का एक हिस्सा नागालैंड में है तो दूसरा हिस्सा म्यांमार में चला गया है।

यानी जहां आप भोजन कर रहे हैं वह अगर भारत है तो जहां आप आराम करेंगे, वह म्यांमार का इलाका है। नागालैंड के मन जिला के एक बड़े गांव के तौर पर इस लोंगवा को जाना जाता है। इस गांव के लोगों को स्वाभाविक तौर पर दोनों ही देशों की नागरिकता मिलती है। इसी वजह से वहां कोई विवाद नहीं होता।

इस गांव के प्रधान के घर के बीच से दोनों देशों की सीमा रेखा है। वैसे वहां के ग्राम प्रधान, जिन्हें स्थानीय भाषा में एंग कहा जाता है, काफी प्रभावशाली व्यक्ति है। उनकी अपनी साठ बीबियां हैं और वे आस पास के सत्तर गांवों की देखरेख किया करते हैं।

स्थानीय इतिहास बताता है कि दुश्मन का सर काट लेने की प्रथा वर्ष 1960 तक यहां जारी थी। यहां के अनेक घरों के अंदर आज भी इंसानी खोपड़ी को सजाकर रखा गया है। किसी की खोपड़ी को युद्ध में जीत के तौर पर देखा जाता था। वैसे स्थानीय लोगों में यह मान्यता थी कि इससे खेती अच्छी होती है।

मन शहर से करीब 42 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है यह गांव। यहा के आदिवासी दरअसल कोनियाक उपजाति के हैं। इनकी अधिक आबादी अभी म्यांमार में है। पहले यह उपजाति अत्यंत आक्रामक मानी जाती थी। वे कई बार आस पास के इलाकों पर हमला कर लोगों को मार डालते थे। इसका मकसक खेती क लिए अधिक जमीन हासिल करना होता था।

आम तौर पर वे पहाड़ के ऊपर घर बनाया करते थे ताकि नीचे से आने वाले दुश्मन को पहले ही देखा जा सके। लगातार प्रयास के बाद किसी तरह उन्हें दुश्मन की खोपड़ी काटने से रोका गया। सरकारी स्तर पर वर्ष 1940 में इसे गैर कानूनी बनाया गया था फिर भी वर्ष 1960 तक यह प्रथा जारी रही थी। जिस कारण लोग यहां जाने के डरते थे। अब गांव में विज्ञान केंद्र भी स्थापित हो चुका है। बाहरी पर्यटकों के आने से स्थानीय लोगों की रोजगार के नये साधन भी खुले हैं। अब वहां पर्यटकों को ध्यान में रखते हुए विशेष उत्सवों का आयोजन भी किया जाता है ताकि बाहर से आने वालों को वहां की संस्कृति की झलक मिल सके।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button