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अलग राज्य की मांग इसी से जुड़ी रही
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अधिकांश सीटों पर मूलवादियों का प्रभाव
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विरोध का राजनीतिक नुकसान होना तय है
राष्ट्रीय खबर
रांचीः हेमंत सोरेन ने ऐसी चाल चल दी है, जिसकी काट खोजने के लिए अभी भाजपा को कोई दमदार तर्क नहीं मिल पा रहा है। दरअसल विधानसभा में 1932 के खतियान और स्थानीयता आधारित नियोजन के अलावा आरक्षण का प्रस्ताव भी पारित कर दिया गया है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने बड़ी चालाकी से अब यह गेंद भाजपा के पाले में डाल दी है।
प्रस्ताव पर अब केंद्र सरकार को फैसला लेना है, जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। भाजपा की परेशानी यह है कि वह इस प्रस्ताव का न तो विरोध कर पा रही है और न ही समर्थन। दोनों ही स्थितियों में असली लाभ तो झारखंड मुक्ति मोर्चा को होना है, यह हर कोई समझ रहा है।
दरअसल इस विषय को काफी संवेदनशील समझा गया था क्योंकि प्रथम मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के कार्यकाल में हुआ फैसला हिंसा का कारण बन गया था। उसके बाद से आने वाली सभी सरकारों ने अपना हाथ जलाने से बचाने का काम करते हुए इस पर सिर्फ बयानबाजी की थी लेकिन फिर से यह रिस्क किसी ने नहीं उठाया था। अब हेमंत ने पहल कर बाजी मार लेने का काम किया है।
दरअसल प्रारंभ से ही झारखंड आंदोलन की मूल बातों में स्थानीयता के आधार पर नौकरी की मांग शामिल रही। दरअसल झारखंड बनने के पहले से ही यहां दूसरे प्रांतों से आये लोगों द्वारा रोजगार पर कब्जा कर लेने की वजह से लगातार यह मांग जोर पकड़ती गयी।
यही वजह है कि अनेक इलाकों में अब आबादी का संतुलन भी बिगड़ गया है। झारखंड की कई लोकसभा और विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां मूल निवासी अब निर्णायक मतदाता नहीं रहे। लेकिन बहुसंख्यक सीटों का समीकरण इसी स्थानीयता और 1932 के खतियान की मांग के समर्थन में रहा है।
सिर्फ आदिवासियों की बात होती तो शायद कोई दूसरी राजनीतिक पार्टी भी इसमें चिंतित नहीं होती। अब 1932 का खतियान का पैमाना लागू होने की वजह से आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा इसके समर्थन में खड़ा है। इसका विरोध करने का राजनीतिक नुकसान क्या हो सकता है, यह भाजपा क्या सभी राजनीतिक दल अच्छी तरह समझ रहे हैं। इसी वजह से यह माना सकता है कि फिलहाल हेमंत ने अपनी तरफ से पहला गोल दाग दिया है और भाजपा यह सोच रही है कि इस कार्रवाई का राजनीतिक उत्तर क्या दिया जाए।