ओडिशा में आम चुनाव में अपनी पार्टी बीजू जनता दल के हारने और सत्ता से बाहर होने के बावजूद पूर्व मुख्यमंत्री नवीन पटनायक राज्य और राष्ट्रीय राजनीति में एक ताकत बने हुए हैं।
उनकी ताकत तब स्पष्ट हुई जब तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन ने अपने दो विश्वस्त सहयोगियों – द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के सांसद दयानिधि मारन और तमिलनाडु के उद्योग मंत्री टीआरबी राजा को 22 मार्च को चेन्नई में होने वाली परिसीमन विरोधी बैठक के लिए पटनायक का समर्थन जुटाने के लिए भुवनेश्वर भेजा।
तब से भारतीय जनता पार्टी पटनायक को बैठक में शामिल होने से रोकने के लिए गुप्त प्रयास कर रही है। ऐसा माना जा रहा है कि उनकी भागीदारी से न केवल परिसीमन के मुद्दे पर विपक्षी दलों के बीच एकता बनेगी बल्कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के खिलाफ तीसरे मोर्चे के गठन का मार्ग भी प्रशस्त हो सकता है।
अतीत में इस तरह का मोर्चा बनाने के कई प्रयास हुए हैं, लेकिन पटनायक ने इससे दूरी बनाए रखी है। हालांकि, चुनावों में अपनी पार्टी की चौंकाने वाली हार के बाद, वे अब भाजपा विरोधी ताकतों से हाथ मिलाने को तैयार हैं।
यह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के लिए चिंता का विषय बन गया है, जिसने हमेशा बीजद को अपना सहयोगी माना है। पटनायक के पास डीएमके से हाथ मिलाने का एक कारण भी है।
उपलब्ध आंकड़ों पर आधारित अकादमिक गणनाओं के अनुसार, ओडिशा उन राज्यों में से एक है जो परिसीमन के परिणामस्वरूप लोकसभा में सीटें खो सकते हैं।
दूसरी तरफ यह बात भी आम लोगों की समझ में आ गयी है कि देश के सभी शीर्ष बाबाओं (आध्यात्मिक नेताओं) को अचानक बिहार राज्य से प्यार हो गया है और वे यहां आने के लिए कतार में लग गए हैं। जो लोग पहले ही राज्य का दौरा कर चुके हैं उनमें श्री श्री रविशंकर और धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री शामिल हैं।
आने वाले महीनों में कुछ और लोग भी यहां आने वाले हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत, जिन्हें बाबा से कम नहीं माना जाता है, ने भी हाल ही में राज्य का दौरा किया।
इस नए प्यार को साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। बिहार एक महत्वपूर्ण राज्य है जो पिछले दशक में कई बार भाजपा के हाथ से निकल गया। इस पेंच को समझने के लिए हम अपने आस पास के इलाकों पर भी गौर
कर सकते हैं कि हर बार चुनाव के ठीक पहले गांव देहात तक में बाबाजी लोग आ जाते हैं और कोई यज्ञ होने लगता है।ऐसे मौके पर हर शाम होने वाले प्रवचन के जरिए भाजपा के लिए जमीन बनाने का काम होता है।
लिहाजा अब कौन कौन से बाबा सरकारी संरक्षण में अपनी अपनी दुकानदारी चला रहे हैं, इसे समझना कठिन नहीं है। दूसरी तरफ जहां तक भाषा और शिक्षा नीति का सवाल है तो यह एक संवेदनशील मसला है और दक्षिण भारत तथा खासकर तमिलनाडु में यह विवाद काफी पुराना है।
ऐसे में जबरन हिंदी थोपने का विरोध होगा, यह समझना भी आसान है। लेकिन इस विवाद में अगर ओड़िसा, बंगाल और असम जैसे राज्य भी जुड़ जाते हैं तो जाहिर तौर पर केंद्र सरकार का चुनावी गणित का समीकरण बिगड़ सकता है।
दूसरी तरफ नई शिक्षा नीति और परिसीमन के मुद्दे पर एमके स्टालिन की सक्रियता ने सुस्त पड़े इंडिया गठबंधन को फिर से सक्रिय होने का मौका दे दिया है।
दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने फर्जी मतदाताओं का मुद्दा सप्रमाण सामने लाकर पहली बार चुनाव आयोग को पूरी जनता की नजरों में संदिग्ध बना दिया है। सफाई देने के बाद भी ऐसी गलती कैसे हुई इस पर कोई भरोसेमंद बयान नहीं आया है। ऐसा तब है जबकि पूर्व में राहुल गांधी द्वारा उठाये गये मुद्दों का उत्तर अब तक नहीं मिला है।
इनसे अलग नरेंद्र मोदी की डिग्री पर दिल्ली विश्वविद्यालय के वकील की दलीलों में भी लोगों को हैरान कर दिया है। यह सारा कुछ भाषा विवाद से जुड़े हुए मुद्दे बनते जा रहे हैं, जिसमें भाजपा की तरफ से जो दलीलें दी जा रही है, उनमें कई बातों का अभाव है और यह प्रश्न उभर रहा है कि क्या दक्षिण भारत में अपना राजनीतिक भविष्य बेहतर ना पाने की वजह से भाजपा उत्तर भारत पर अपनी पकड़ मजबूत करने की कवायद में जुटी है।
दरअसल यह समझने वाली बात है कि हर ऐसा संवेदनशील मुद्दा उसी वक्त उभरता है जब किसी राज्य में चुनाव होने वाले हों। इस बार बिहार का नंबर करीब आ रहा है, जिसके बारे में खुद नरेंद्र मोदी भी भरोसे के साथ यह नहीं जानते हैं कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का अगला कदम क्या होगा। लिहाजा बिहार में अपनी पकड़ बनाये रखने की चाल में शिक्षा नीति के साथ साथ राजनीतिक बाबाओं की सक्रियता दिख रही है।