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अब किसे जिम्मेदार माना जाए

तमाम विपक्ष के लोग काफी समय से राजीव कुमार की अगुवाई वाले चुनाव आयोग पर भाजपा के पक्ष में काम करने का आरोप लगाते आये हैं। महाराष्ट्र चुनाव के वक्त अचानक से मतदाताओं की संख्या  में बढ़ोत्तरी का सवाल अब भी अनुत्तरित है।

इसके बीच हरियाणा और दिल्ली का चुनाव भी भाजपा के पक्ष में चला गया है। इसके बीच सिर्फ एक घटना पर ध्यान देना जरूरी है। महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव के चुनाव परिणाम को लेकर गांव के लोगों को संदेह था। उनलोगों ने अपनी संतुष्टि के लिए दोबारा बैलेट से मतदान कराने का अपना सार्वजनिक फैसला लिया।

इस फैसले से ही हड़कंप मच गया और प्रशासन ने कर्फ्यू लगाकर इस प्रयोग को रोक दिया। हाल के वर्षों में, भारतीय चुनाव आयोग (ईसीआई) को भारतीय लोकतंत्र की प्रवृत्तियों के बारे में चिंतित राजनीतिक दलों और नागरिक समाज कार्यकर्ताओं से – अतिशयोक्तिपूर्ण से लेकर उचित कारणों तक – आलोचना का सामना करना पड़ा है।

हाल के राज्य चुनावों के बाद एक नई शिकायत, उसी वर्ष (2024) के आम चुनाव में दर्ज संख्या की तुलना में विधानसभा चुनावों में मतदाताओं की बढ़ी हुई संख्या से संबंधित है। जबकि द हिंदू में प्रकाशित एक रिपोर्ट में पाया गया कि पिछले चुनाव चक्रों की तुलना में मतदाता पंजीकरण में ऐसी विसंगतियां असामान्य नहीं थीं, लेकिन यह प्रश्न (विपक्षी कांग्रेस द्वारा जोरदार तरीके से उठाया गया) कि कैसे महाराष्ट्र जैसे राज्य में आम चुनाव के बाद से केवल छह महीनों में 48 लाख मतदाताओं की वृद्धि दर्ज की गई, इसका उत्तर चुनाव आयोग द्वारा पर्याप्त रूप से नहीं दिया गया है।

इसके साथ ही चुनाव आयोग के इस खुलासे ने कि पंजीकरण की प्रकृति अलग-अलग मतदाताओं के लिए एक ही मतदाता फोटो पहचान पत्र (ईपीआईसी) संख्या रखने की अनुमति देती है, विपक्षी दलों, विशेष रूप से तृणमूल कांग्रेस को पंजीकरण प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने का मौका दे दिया है।

चिंताजनक बात यह है कि मतदाताओं के विभिन्न राज्यों में मतदान करने की संभावना है। प्रथम दृष्टया, ईपीआईसी संख्याओं में यह विसंगति – जिसके बारे में चुनाव आयोग ने कहा है कि वह अपने मतदाता डेटाबेस में संख्याओं को अद्यतन करके उन्हें विशिष्ट बनाकर सुधार लेगा – समस्याजनक नहीं है। भले ही EPIC संख्या अलग-अलग मतदाताओं द्वारा साझा की गई हो, वे केवल अपने सत्यापित पहचान पत्र के साथ ही मतदान कर सकते हैं।

फिर भी, बड़ी समस्या यह है कि विभिन्न राज्यों में एक ही मतदाता के पास कई EPIC नंबर होने की संभावना है, जिससे इस प्रक्रिया पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। उदाहरण के लिए, यदि चुनाव निकट क्रम में हों तो एक प्रवासी मतदाता अपने निवास के किसी विशेष राज्य में तथा अपने गृह राज्य में भी मतदान कर सकता है, क्योंकि इस बात की अच्छी संभावना रहती है कि डेटाबेस में डुप्लिकेट EPIC संख्या बची रहे।

सबसे प्रभावी समाधान यह होगा कि मतदान के लिए आधार संख्या और बायोमेट्रिक सत्यापन को जोड़ा जाए। लेकिन यह अभी भी पूरी तरह से विश्वसनीय नहीं है। आधार का उद्देश्य नागरिकों की नहीं, बल्कि निवासियों की पहचान करना है, तथा इसके साथ ही मतदान की पात्रता के लिए अन्य प्रमाण भी प्रस्तुत करना होगा।

दूसरा, मतदाता सूची में आधार संख्या के कारण उसका दुरुपयोग हो सकता है, जैसे कि प्रोफाइलिंग, तथा जब यह सूची राजनीतिक दलों को उपलब्ध कराई जाती है, तो चुनाव आयोग को इसे छिपाना पड़ता है। इसके अलावा, डुप्लीकेशन हटाने के लिए बायोमेट्रिक सत्यापन के साथ स्पष्ट वैकल्पिक पहचान सत्यापन की व्यवस्था भी होनी चाहिए, क्योंकि तकनीकी विफलताओं के कारण बायोमेट्रिक सत्यापन में वास्तविक मतदाताओं के बाहर होने की संभावना रहती है। ईसीआई को स्पष्ट रूप से डी-डुप्लीकेशन प्रक्रिया शुरू करने के लिए तैयार रहना चाहिए, जिससे मतदाता को केवल एक ही ईपीआईसी नंबर और मतदाता पहचान पत्र रखने की अनुमति मिल सके, तथा उसे केवल अपने निवास क्षेत्र में ही मतदान करने की पात्रता हो।

लेकिन यह दलील भी चुनाव आयोग के पूर्व के बयान का खंडन ही है। पहले चुनाव आयोग ने इस नंबर को अनोखा बताया था अब मामला पकड़ में आया तो नई दलील गढ़ी जा रही है। स्पष्ट है कि चुनाव आयोग निष्पक्षता का दावा करने का गौरव खो चुका है। ताजा जानकारी के मुताबिक अलग राज्य नहीं एक ही शहर में ऐसे तीन नंबर वाले लोगों का पता कूचबिहार से चला है।

रिपोर्ट बताती है कि एक ही नंबर के कई लोग एक ही शहर में है। पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का यह सवाल महत्वपूर्ण है कि आखिर पश्चिम बंगाल की मतदाता सूची में उत्तर प्रदेश या गुजरात अथवा दूसरे राज्यों के निवासियों का नाम कैसे आ गया है और इस किस्म की गड़बड़ी आखिर कैसे की गयी है। चुनाव आयोग से इस बारे में शीर्ष अदालत को ही पूछ लेना चाहिए।

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