इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव द्वारा इस सप्ताह विश्व हिंदू परिषद के एक कार्यक्रम में दिए गए भाषण में की गई टिप्पणियां बहुत ही परेशान करने वाली हैं क्योंकि उनमें अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति गहरे पूर्वाग्रह और घृणा की बू आती है।
न्यायपालिका के सदस्यों से राजनीतिक मामलों के बारे में सार्वजनिक रूप से बोलने की अपेक्षा नहीं की जाती है। उन्हें किसी भी मुद्दे पर बोलते समय संयम बरतना चाहिए, ताकि उनके विचारों को उनके न्यायिक निर्णयों को प्रभावित करने वाले के रूप में न देखा जाए। विवादास्पद पदों और कार्यों के इतिहास वाले दक्षिणपंथी समूह द्वारा आयोजित समारोह में न्यायाधीश का शामिल होना भी गलत था।
न्यायाधीशों को संविधान के प्रति आस्था और निष्ठा रखने की शपथ दिलाई जाती है और वे इसका पालन करने और इसे बनाए रखने की शपथ से बंधे होते हैं। यह भावना सभी नागरिकों की समानता और बंधुत्व, और सभी के लिए न्याय और निष्पक्षता में प्रकट होती है। न्यायमूर्ति यादव ने अपनी घृणित टिप्पणियों के साथ न्यायिक आचरण के सभी मानदंडों और संविधान की भावना और अक्षर का उल्लंघन किया।
उन्होंने कहा, “यह देश हिंदुस्तान में रहने वाले बहुसंख्यकों की इच्छा के अनुसार काम करेगा। यही कानून है।” उन्होंने अन्य विवादास्पद बयान भी दिए, जिनमें मुसलमानों के खिलाफ़ एक भद्दा अपमान भी शामिल था। उन्होंने यह भी कहा कि हिंदू बच्चों को दया, सहिष्णुता और अहिंसा सिखाई जाती है, लेकिन मुस्लिम बच्चों से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे पशु वध को देखकर सहनशील बनें।
भाषण का विषय समान नागरिक संहिता की संवैधानिक आवश्यकता थी, और उन्होंने कहा कि वह शपथ लेंगे कि देश “निश्चित रूप से एक ही कानून लाएगा, और वह इसे बहुत जल्द लाएगा।” न्यायमूर्ति यादव की टिप्पणी अगर आम आदमी द्वारा की जाती है, तो उसे घृणास्पद भाषण माना जाएगा।
उन पर कार्रवाई की जानी चाहिए क्योंकि उन्होंने न्यायपालिका पर एक छाया डाली है। न्यायमूर्ति यादव ने अतीत में विवादास्पद बयान दिए हैं, जिससे उनके न्यायिक आचरण और रवैये पर सवाल उठे हैं। अगर न्यायमूर्ति यादव द्वारा उनके मामले की सुनवाई और निर्णय किया जाता है, तो कोई भी मुसलमान न्याय पाने के लिए आश्वस्त नहीं होगा। सुप्रीम कोर्ट ने उनकी टिप्पणियों पर ध्यान दिया है और उन पर रिपोर्ट मांगी है।
उसे उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए क्योंकि उन्होंने पूरी न्यायपालिका की विश्वसनीयता को कम किया है। उनके खिलाफ महाभियोग भी चलाया जा रहा है। यह देखना परेशान करने वाला है कि देश में एक ऐसा पारिस्थितिकी तंत्र है जिसमें एक न्यायाधीश को इस तरह की टिप्पणी करने का साहस मिलता है।
न्याय की ऐसी व्यवस्था जिसमें ऐसा न्यायाधीश काम कर सकता है, उसे निष्पक्ष और न्यायपूर्ण नहीं माना जाएगा। इस संदर्भ में सपा प्रमुख अखिलेश यादव की टिप्पणी भी प्रासंगिक है, जिसमें उन्होंने कहा है कि भाजपा ने तमाम संवैधानिक संस्थानों को भी दूषित कर दिया है। जाहिर है कि इस किस्म की टिप्पणी करने वाले कुछ लोग उस विचारधारा के समर्थक होंगे लेकिन कई ऐसे भी हैं, जिन्होंने अपनी पदोन्नति के लिए यह रास्ता चुना है।
राज्यसभा में सदन के सभापति यानी उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के खिलाफ लाया गया अविश्वास प्रस्ताव भी एक नमूना है। खड़गे ने कहा, उपराष्ट्रपति का पद दूसरा संवैधानिक पद है… 1952 से – उपराष्ट्रपति को हटाने के लिए कोई प्रस्ताव नहीं लाया गया क्योंकि वे हमेशा निष्पक्ष और राजनीति से परे रहे हैं। उन्होंने हमेशा नियमों के मुताबिक सदन चलाया। लेकिन आज हमें यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है कि संसद में राजनीति हो रही है… हम निराश हैं कि आजादी के 75वें वर्ष में पक्षपातपूर्ण व्यवहार ने हमें अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए मजबूर किया।
उपराष्ट्रपति कभी सरकार की तारीफ करते हैं तो कभी खुद को आरएसएस का एकलव्य बताते हैं। वे नेताओं पर आपत्तिजनक टिप्पणी करते हैं। मैं कहना चाहता हूं कि अध्यक्ष योजनाबद्ध तरीके से विपक्ष के मुद्दों पर चर्चा नहीं होने देते हैं।
कांग्रेस नेता ने कहा, हमें लगता है कि वह सरकार के प्रवक्ता बन गए हैं। उन्होंने आगे कहा कि संसद में व्यवधान का सबसे बड़ा कारण खुद सभापति हैं। ऐसा नहीं है कि सदन के अंदर की गतिविधियों को देश की जनता बिल्कुल भी नहीं समझ पाती है।
वह जो कुछ देखती है, उससे बहुत कुछ साफ हो जाता है और कांग्रेस एवं इंडिया गठबंधन की तरफ से उनके खिलाफ जो आरोप लगाये गये हैं, वे काफी हद तक सही प्रतीत होते हैं।
ऊपर से अब भाजपा खेमा पूरी ताकत से इस कथन को झूठ साबित करने में जुटी है। संख्याबल में भारी होने की वजह से इस प्रस्ताव का कोई सार्थक परिणाम निकलने की उम्मीद तो नहीं है पर यह स्पष्ट हो जाएगा कि पक्षपातपूर्ण रवैये की वजह से अब आसन सदन का भरोसा खो चुका है।