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गुटबाजी के लाइलाज बीमारी से जूझ रहा है कांग्रेस संगठन

चुनावी हार के  बाद परिवर्तन जरूरी


  • खूंटी और लोहरदगा में मिली सफलता

  • तीन और सीट जीत सकती थी पार्टी

  • बड़े नेताओं से किनारा कर रखा है


राष्ट्रीय खबर

रांचीः झारखंड के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन अत्यंत दयनीय रहा। टिकट वितरण के वक्त भी खूंटी सीट पर जीत का संभावना व्यक्त की गयी थी। इसके अलावा रांची, लोहरदगा, हजारीबाग और धनबाद सीट का माहौल भी कांग्रेस के पक्ष में था। यह अलग बात है कि अंततः इन तीन सीटों पर कांग्रेस को जीत का सेहरा बांधने का मौका नहीं मिला।

लोहरदगा में कांग्रेस प्रत्याशी की जीत मतदान के बाद ही स्पष्ट हो गयी थी। दरअसल अब लोकसभा चुनाव बीतने और हेमंत सोरेन के जेल से बाहर आने के  बाद कांग्रेस संगठन शांति से अपने आप को मजबूती देने का विचार कर सकता है। अंदरखाने से आ रही सूचनाओं के मुताबिक प्रदेश कांग्रेस के नेता गुपचुप तरीके से दिल्ली जाकर पार्टी के बड़े नेताओं से मिल रहे हैं। जाहिर सी बात है कि यह सिर्फ शिष्टाचार मुलाकात नहीं है और वे अपने अपने तरीके से संगठन की खूबियों और खामियों का बखान कर रहे हैं।

कांग्रेस संगठन की वर्तमान में सबसे बड़ी कमजोरी उसकी गुटबाजी है। यह हर किसी को पता है कि संगठन में कौन सा कार्यकर्ता किस नेता का समर्थक है। इस गुटबाजी की वजह से एक खेमा दूसरे खेमा के नेता का समर्थन नहीं करता और लोकसभा चुनाव में पराजय का एक प्रमुख कारण यह भी रहा है।

पार्टी के लोग भी मानते हैं कि इस गुटबाजी को रोकने अथवा दूरी को पाटने में वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष पूरी तरह विफल रहे हैं। इससे पहले जब डॉ रामेश्वर ऊरांव प्रदेश अध्यक्ष हुआ करते थे तो कांग्रेस खेमा के मंत्री भी नियमित तौर पर प्रदेश कार्यालय आते थे। पार्टी के दूसरे बड़े नेताओं की चेहरा भी नियमित तौर पर प्रदेश कार्यालय में दिखता था। राजेश ठाकुर को अध्यक्ष बनाये जाने के बाद से यह सिलसिला लगभग बंद हो गया। इसके पीछे की मूल वजह राजेश ठाकुर की पार्टी में पदोन्नति के पीछे आरपीएन सिंह का हाथ होना है। इस कारण कांग्रेस के अनेक लोग अब भी अपने प्रदेश अध्यक्ष पर भरोसा नहीं कर पाते हैं।

कांग्रेस की भी आगामी विधानसभा चुनाव में वही चिंता सता रही है जो अभी भाजपा का सरदर्द है। यही वजह है कि भाजपा के चुनाव सह प्रभारी औऱ असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा तमाम नेताओं से घर घर जाकर मिल रहे हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस की तरफ से तमाम बड़ और जनाधार वाले नेताओं को संगठन के करीब लाने की कोई कोशिश तक नहीं हुई है। प्रदेश कांग्रेस कार्यालय जाने से परहेज करने वालों का तर्क है कि वहां संगठन पर काबिज लोगों में से बहुत कम लोगों के पास सौ लोगों को भी एकत्रित करने की क्षमता है। ऐसे लोगों का निर्देश लेना जनाधार वाले नेताओं को पसंद नहीं है।

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