राजस्थान में एक चुनावी रैली में, प्रधान मंत्री ने एक सभा में कहा कि कांग्रेस नागरिकों की संपत्ति (पवित्र मंगलसूत्र सहित) छीन लेगी और इसे मुसलमानों को सौंप देगी। भाषण में मुसलमानों की पहचान अधिक बच्चे पैदा करने वालों और घुसपैठियों के रूप में की गई। टिप्पणियों ने न केवल मुस्लिम अल्पसंख्यक सदस्यों के बीच, बल्कि काफी हद तक घबराहट पैदा की।
किसी भी उचित पैमाने के आधार पर, वे किसी भी भारतीय प्रधान मंत्री द्वारा की गई अब तक की सबसे भड़काऊ टिप्पणियों में से एक थीं। फिर भी, कई मामलों में, टिप्पणियाँ केवल मुसलमानों को बलि का बकरा बनाने की अनौपचारिक शासन नीति पर अनुमोदन की आधिकारिक मोहर लगाती हैं। इस बलि का अधिकांश हिस्सा सरकार से संबद्ध समाचार नेटवर्क पर होता है।
कई मायनों में न्यूज़ एंकरों ने अब मुसलमानों को बलि का बकरा बनाने का काम अपने हाथ में ले लिया है। हिंदी और अंग्रेजी चैनलों पर समाचार बहसों का लगभग एक चौथाई बहसें हिंदू-मुस्लिम मुद्दों पर केंद्रित रहीं। इन बहस का उद्देश्य दर्शकों के सामने नए तरीके प्रस्तुत करना है जिसमें मुस्लिम (हिंदू) समाज की सुरक्षा, सांस्कृतिक जीवन और नैतिक मूल्यों के स्थिर कामकाज को खतरे में डाल रहे हैं।
हिजाब और नमाज, मस्जिद और मुस्लिम बादशाह, लव जिहाद और कोरोना जिहाद जैसे विषय आम हो गए हैं। फिर भी प्रधान मंत्री की टिप्पणियाँ उदाहरणात्मक हैं। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि वे ऐसे समय में आए हैं जब प्रमुख विपक्षी दल, कांग्रेस, हाशिये पर पड़े लोगों के पक्ष में सामाजिक-आर्थिक शक्ति के पुनर्गठन के मंच पर चुनाव लड़ रही है।
इसमें महिलाओं को पर्याप्त कल्याण भुगतान के वादे और एससी/एसटी/ओबीसी समुदायों की आरक्षण सीमा बढ़ाने की प्रतिबद्धता शामिल है। यही वह संदर्भ था जिसमें प्रधानमंत्री ने यह टिप्पणी की थी। इसलिए, टिप्पणियाँ हमें समकालीन भारतीय समाज में मुस्लिम बलि के बकरे की भूमिका के बारे में एक नजरिया प्रदान करती हैं।
मानव मामलों में बलि का बकरा बनाना एक काफी प्राचीन और सार्वभौमिक तंत्र है। इसलिए, बलि का बकरा शब्द एक घिसा-पिटा शब्द बन गया है। इस प्रकार, सामाजिक या राजनीतिक एकीकरण की कुछ आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बलि का बकरा बनाने के विशिष्ट तरीके अक्सर अस्पष्ट होते हैं।
दरअसल, यह अस्पष्टता बलि का बकरा तंत्र के डिजाइन की एक विशेषता है जिसका उपयोग अक्सर राजनीतिक अभ्यास को मुखौटा प्रदान करने, या नियंत्रण और वर्चस्व के कुछ पहलुओं पर वैधता प्रदान करने के लिए किया जाता है जो खतरे में आ गए हैं। लेकिन ऐसे मौके आते हैं जब विभेदक सामाजिक अधिकारों और विशेषाधिकारों की वैधता सवालों के घेरे में आ जाती है। ऐतिहासिक रूप से, ऐसी स्थितियाँ विपत्तियों या तुलनीय आपदाओं से पहले आई थीं जब सामाजिक बंधन ढीले हो गए थे या नष्ट हो गए थे।
हम श्रीलंका में भी ऐसी ही प्रक्रिया घटित होते देख रहे हैं। वहां पीड़ित तमिल हिंदू और उत्पीड़क सिंहली बौद्ध हैं। हाल के वर्षों में, श्रीलंकाई सरकारी अधिकारियों और राष्ट्रवादी सिंहली बौद्ध भिक्षु अन्य बुनियादी अधिकारों के अलावा, धर्म और विश्वास की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करते हुए देश के उत्तर और पूर्व में हिंदू और मुस्लिम धार्मिक स्थलों को निशाना बना रहे हैं।
श्रीलंकाई तमिलों को बलि का बकरा बनाने का तरीका मोटे तौर पर भारत जैसा ही है, भले ही उत्पीड़न की धुरी धार्मिक आधार के बजाय जातीय/भाषाई आधार पर अधिक हो। लेकिन जब श्रीलंका आर्थिक तौर पर तबाह हो गया तो पता चला कि इस धार्मिक विद्वेष की वजह असली थी। लिहाजा अगर इस बार के चुनाव में ऐसे मुद्दे उठाये जा रहे हैं तो इसकी सच्चाई को समझना कठिन नहीं है। हम इतिहास इसलिए भी पढ़ते हैं ताकि भूतकाल की गलतियों से सबक लेकर उन्हें दोहराने से बचे।
पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति आज क्या है, यह हम देख समझ सकते हैं। इन दोनों पड़ोसी राज्यों के अलावा म्यांमार किस बर्बादी के कगार पर पहुंचा है, वह भी जानकारी में है। रोहिंग्या विद्वेष से प्रारंभ हुई लड़ाई कहां जा पहुंची है, इसे म्यांमार के सभी पड़ोसी देश महसूस कर पा रहे हैं। लिहाजा अगर प्रधानमंत्री और उनके समर्थक फिर से इसी मुद्दे को बार बार उछालने की कोशिश कर रहे हैं तो उसका मकसद क्या है, इसे समझने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
मुसलमान और मंगलसूत्र का बयान देने का मकसद अपने वोट बैंक को सक्रिय करना ही है, यह कोई भी समझ सकता है। यह भी स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री कांग्रेस के घोषणापत्र के नाम पर अनर्गल बातें कर रहे हैं। पहले दो चरण के चुनावों में यह स्पष्ट है कि इन मुद्दों का असर अब पहले जैसा नहीं हो रहा है। इसका नतीजा है कि अब मोदी और उनके समर्थक चार सौ पार का नारा लगाना बंद कर चुके हैं।