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अदालत की भी अग्निपरीक्षा का दौर है

फिल्मों में अदालती दृश्यों में आंख पर पट्टी बांधे कानून की प्रतिमा नजर आती है। इस पर न्यायपालिका से जुड़े कई विद्वानों ने समय समय पर सफाई दी है और कहा है कि यह न्याय के अंधे होने का प्रतीक नहीं है। यह दरअसल निष्पक्ष भाव से फैसला करने का प्रतीक है। अब फिर से लोकसभा चुनाव के ठीक पहले झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी और अब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी से न्याय पर सवाल उठ गये हैं।

एक कानूनी परिभाषा यह भी है कि कानून बिना किसी राग और द्वेष के अपना काम करता है लेकिन अगर इस काम में नाहक ही देर हो कई बार अनर्थ होता है। फिलहाल न्यायपालिका इसी सवाल के आगे खड़ी है। दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल की प्रवर्तन निदेशालय द्वारा गिरफ्तारी भारत के लोकतंत्र और संघवाद की दिशा पर परेशान करने वाले सवाल उठाती है।

आम चुनाव से पहले विपक्ष के एक प्रमुख नेता और एक सेवारत मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी का राजनीतिक इरादा स्पष्ट है। दिल्ली उत्पाद शुल्क नीति मामला, जिसमें श्री केजरीवाल को गिरफ्तार किया गया है, अगस्त 2022 में सीबीआई द्वारा दर्ज किया गया था, जिसके आधार पर ईडी ने अपनी मनी लॉन्ड्रिंग जांच शुरू की थी। कई अन्य आप नेता जेल में हैं।

फरवरी 2023 से मनीष सिसौदिया, और अक्टूबर 2023 से संजय सिंह। अगर ईडी के पास भ्रष्टाचार के सबूत थे, तो उसे मामले की सुनवाई युद्ध स्तर पर करनी चाहिए थी। अभियुक्तों को जेल में रखना, जबकि जांचकर्ता अपना खोजी अभियान जारी रखे हुए हैं, कानून द्वारा शासित समाज में अस्वीकार्य होना चाहिए। जब आरोपी सत्तारूढ़ दल के राजनीतिक विरोधी हों, तो गिरफ्तारियों को कानून के चयनात्मक कार्यान्वयन के रूप में देखा जाएगा और लोकतंत्र में जनता के विश्वास को कम किया जाएगा।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पहले ईडी से सबूतों की एक अटूट श्रृंखला प्रदान करने के लिए कहा था, जिसमें दिखाया गया हो कि अवैध कमाई का पैसा शराब लॉबी से श्री सिसोदिया तक पहुंचा था। कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि ईडी की क्षमता किसी आरोपी को अपराध की आय से जोड़ने वाले निर्बाध सबूत को सामने लाने में है। बाद में, अदालत ने श्री सिसौदिया को जमानत देने से इनकार कर दिया। यह पहली बार नहीं है कि कोई केंद्रीय एजेंसी किसी संवैधानिक पदाधिकारी के पीछे गई है।

ईडी द्वारा गिरफ्तारी से पहले हेमंत सोरेन ने झारखंड के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। जैसे हालात हैं, इस देश की लोकतांत्रिक राजनीति को केंद्रीय एजेंसियों द्वारा ठप किया जा सकता है, भले ही न्यायालय और भारत का चुनाव आयोग इस सब को नियमित कानून प्रवर्तन के रूप में मानता रहे। यह बहाना कि कानून अपना काम कर रहा है, किसी भी समझदार व्यक्ति के लिए विश्वसनीय नहीं होगा। यह कोई संयोग नहीं है कि केंद्रीय एजेंसियां भ्रष्टाचार के आरोप में केवल विपक्षी नेताओं को ही गिरफ्तार कर रही हैं, और यहां तक कि जिन नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं, उन्हें भी भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिलाते ही छोड़ दिया जाता है।

श्री केजरीवाल एक सर्व-शक्तिशाली एजेंसी के लिए अभियान चलाकर राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त कर गए जो सार्वजनिक जीवन से भ्रष्टाचार को खत्म कर देगी। उन्होंने और उनके अराजकतावादियों के समूह ने भीड़तंत्र के माध्यम से संवैधानिक रूप से चुनी गई सरकार को चुनौती दी, और एक दशक से भी अधिक समय पहले राजकोष को हुए अनुमानित नुकसान जैसे षड्यंत्र के सिद्धांतों को बढ़ावा दिया। श्री केजरीवाल अब स्वयं उस तर्क में फंस गए हैं जिसे उन्होंने लोकप्रिय बनाया था।

लेकिन दो गलतियाँ एक सही नहीं बन जातीं। इसलिए शायद पहली बार इस प्रश्न का उत्तर अदालत को देना है कि वह देश की जनता के प्रति उत्तरदायी है अथवा नहीं। यह कहावत पुरानी है कि सिर्फ न्याय होना नहीं चाहिए बल्कि होता हुआ दिखना भी चाहिए। हाल के अनेक ऐसे मामले सामने आये हैं, जिनमें सबूत नहीं होने के बाद भी अभियुक्त जेलों में हैं।

अब इसमें नई बात यह है कि सरकारी गवाह द्वारा ही भाजपा को मोटा चंदा देने का तथ्य सामने आ चुका है। ऐसे में गवाह को कितना विश्वसनीय माना जा सकता है और इस दलील को भी कैसे नकारा जा सकता है कि केंद्रीय एजेंसियों के दबाव में ऐसे लोग गलत बयान नहीं दे रहे हैं। दरअसल चुनावी बॉंड एक ऐसा खुलासा है जिससे देश की राजनीति पर केंद्रीय एजेंसियों के जरिए दवाब बनाने का खेल उजागर हो चुका है। लिहाजा यह अदालत की अग्निपरीक्षा का दौर है, जिसमें उसकी तरफ पूरे देश की नजर लगी हुई है। जिन कानूनी धाराओं का प्रयोग हो रहा है, वे गलत मंशा से लगाये जा रहे हैं, इसका फैसला भी अदालत को ही करना है।

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