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चुनावी चंदे में पारदर्शिता का सवाल

सर्वोच्च न्यायालय के पांच न्यायाधीशों के संवैधानिक पीठ ने देश में चुनावी चंदे में आवश्यक पारदर्शिता लाने वाला निर्णय सुनाते हुए छह वर्ष पुरानी चुनावी बॉन्ड योजना को असंवैधानिक करार देते हुए उस पर रोक लगा दी। उसने अपने निर्णय में कहा कि यह बॉन्ड संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) में निहित सूचना के अधिकार का उल्लंघन करता है। इस निर्णय के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय ने खुले और पारदर्शी शासन और सूचनाओं तक मतदाताओं की पहुंच के मूल्यों को बरकरार रखा है।

चुनावी चंदे का यह गोपनीय तरीका इनका उल्लंघन कर रहा था। सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया है कि भारतीय स्टेट बैंक जो इन बॉन्ड को जारी करने के लिए अधिकृत सरकारी बैंक है, उसे 12 अप्रैल, 2019 (जब इस विषय में अंतरिम आदेश पारित हुआ था) से अब तक जारी और खरीदे गए बॉन्ड का पूरा ब्योरा भारतीय निर्वाचन आयोग को देना होगा।

निर्वाचन आयोग को छह मार्च से 13 मार्च के बीच यह जानकारी अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित करनी होगी। जिन चुनावी बॉन्ड की 15 दिन के भीतर की वैधता है उन्हें वापस लौटाना होगा। इस आदेश ने भाजपा के समक्ष एक बड़ा संकट उत्पन्न कर दिया है। इस रास्ते से धन कमाने वाली सबसे बड़ी पार्टी तो भाजपा ही है लेकिन अगर किनलोगों ने चंदा दिया और उनमें वे विदेशी शेल कंपनियां भी हैं, इस बात की पुष्टि हो गयी तो पहले से लग रहे आरोप सही साबित हो जाएंगे।

सर्वोच्च न्यायालय ने 2017 के वित्त अधिनियम के माध्यम से कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 182 (3) के बारे में जो टिप्पणी की वह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। यह धारा कंपनियों के राजनीतिक अंशदान के बारे में है। धारा 182 (3) के तहत ऐसे अंशदान को बोर्ड द्वारा प्राधिकृत किया जाना चाहिए, यह नकद नहीं होना चाहिए और इसकी जानकारी नफा-नुकसान खाते में दी जानी चाहिए।

वर्ष 2017 के संशोधन ने वह सीमा हटा दी थी जिसके तहत पिछले तीन वर्ष के मुनाफे का 7.5 फीसदी दान दिया जा सकता था। संशोधन ने इसका प्रकटीकरण करने की आवश्यकता को भी समाप्त कर दिया। न्यायालय ने सवाल उठाया कि राजनीतिक दलों को असीमित कारोबारी फंडिंग स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के सिद्धांत का उल्लंघन करती है और उसने काले धन पर नियंत्रण के मामले में चुनावी बॉन्ड की क्षमता पर भी संदेह जताया।

उसने यह संकेत भी दिया कि यह संशोधन जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 29 (सी) के साथ सुसंगतता में पेश किया गया जो राजनीतिक दलों को चुनावी बॉन्ड से हासिल अंशदान का खुलासा करने से छूट देती है। मार्च 2023 में एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने पाया कि 2020-21 में सत्ताधारी दल समेत सात राष्ट्रीय दलों की आय का 66 फीसदी हिस्सा अज्ञात स्रोतों से आया। इस आय में चुनावी बॉन्ड का हिस्सा 83 फीसदी था।

सच यह है कि चुनावी बॉन्ड ने राजनीतिक चंदे  को लेकर अस्पष्टता बढ़ाई है। मौजूदा कानूनों के तहत राजनीतिक दलों के लिए 20,000 रुपये से अधिक के चंदे का खुलासा करना जरूरी है। इस सीमा की वजह से ही बड़े चंदे को छोटे-छोटे रूप में बांटकर किया जाता है। राजनीतिक दलों के स्वतंत्र अंकेक्षण की व्यवस्था के अभाव में इन खुलासा नियमों से पार पाना आसान है।

वर्ष 2013 में सरकार ने इलेक्टोरल ट्रस्ट स्कीम पेश की थी जिसकी मदद से गैर लाभकारी कंपनियों को ऐसी संस्थाएं स्थापित करनी थीं जो अन्य कंपनियों और लोगों से धन जुटा सकें और उन्हें राजनीतिक दलों को वितरित कर सकें। इन प्रकटीकरण मानकों के लिए न्यास स्थापित करने वाली मूल कंपनी की घोषणा की भी आवश्यकता नहीं है।

चुनी हुई गुमनामी पर सवाल उठाते हुए तथा यह सुझाते हुए कि कंपनियों के पास व्यक्तियों की तुलना में चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने की अधिक क्षमता होती है, अदालत ने इशारा किया कि राजनीतिक चंदे से संबद्ध कानूनों में जल्दी सुधार की आवश्यकता है। किसी भी लोकतंत्र में जहां पैसा राजनीतिक सफलता का वाहक है वहां यह जरूरी है।

चुनाव प्रचार के लिए दानराशि से संबंधित कानून शायद कभी भी खामी रहित न हों लेकिन चुनाव आयोग को चुनावी चंदे के नियमों को पश्चिमी लोकतंत्रों के उत्कृष्ट मानकों के अनुरूप करने का यह अवसर हाथ से जाने नहीं देना चाहिए। वैसे अदालत के इस फैसले पर सही अर्थों में अमल होता है अथवा नहीं, यह देखने वाली बात होगी।

देश की राजनीति जिस तेजी से करवट ले रही है, उसमें यह एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कांग्रेस ने अपने बैंक खातों से 65 करोड़ का आयकर काटे जाने की सार्वजनिक शिकायत की है। कांग्रेस ने इसे आर्थिक आतंकवाद करार दिया है और सवाल उठाया है कि क्या आयकर विभाग ने भाजपा से भी आयकर काटे हैं।

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